कहानीलघुकथा
आत्मसम्मान
"आत्मसम्मान की बात तुम कर रही हो ,पांचाली !तुम...!तुम जानती भी हो आत्मसम्मान की परिभाषा क्या है...हा,हा,हा?"विद्रूप से अट्टहास करते हुए दुर्योधन ने पूछा।
"मेरे स्वामी अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हैं ,जिनका कोई सानी नहीं, करना ही है तो करके देखो धनुर्विद्या का मुकाबला। तैरती मीन की आंख का लक्ष्यभेद कर पाओगे,या केवल निरीह स्त्री पर पौरुष दिखलाओगे ?"
"अवश्य, किंतु उससे प्रथम एक बात जानना चाहूंगा कि तुम्हें जब उनकी माता कुंती ने वस्तु जानकर अन्य भाइयों में बांटने को कहा,तब माता के वाक्य को अर्जुन विच्छेद नहीं कर पाए ?यह नहीं कह पाए कि तुम स्त्री हो,वस्तु नहीं...?दुशासन ने ठहाका लगाया।
तुम में तनिक भी स्वाभिमान होता तो प्रतिकार कर सकती थीं,पांच पतियों की पत्नी और आत्म सम्मान... !"
"(स्वगत)क्या जानती थी कि एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के दर्द को नहीं समझेगी? और क्या जानती थी कि सबके सभी मौन हो उस आदेश को स्वीकार कर लेंगे?(प्रत्यक्ष)दुर्योधन, तुमने ही कौन सा स्वाभिमान दिखाया है?एक तरफ पांचों पांडवों को वचन से बांध दिया और एक रजस्वला स्त्री को केश पकड़ कर घसीटते हुए लाने में कौन से बाहुबल का तुमने प्रदर्शन किया है ?" द्रौपदी ने फुफकारते हुए कहा।
"फुफकार कर बोला दुर्योधन,"यह उस अपमान का प्रतिशोध है,जिसे तुम किंचित विस्मृत कर चुकी होगी,स्मरण है,तुमने मुझे अंधे का पुत्र अंधा कह कर परिहास किया था?अभी तो बहुत कुछ...हां,बहुत कुछ होना शेष है।"
"द्रौपदी(स्वगत) धर्मराज,आप मौन क्यों हैं...कहां गई आपकी धर्मनीति.. ?क्या एक स्त्री का यूं भरे दरबार अपमान होते देख आपका रक्त नहीं खौलता..,क्या अब भी निशब्द बैठे रहेंगे ?"(प्रत्यक्ष)दुशासन ,' विनाश काले विपरीत बुद्धि ' तुम यदि महाबली हो तो संग्राम में योद्धाओं से दो- दो हाथ करो,अन्यथा महाबली भीम को वचन मुक्त कर देखो!"
"वाह री स्त्री,अभी भी इन कापुरुषों पर गर्व करती है? द्युत क्रीड़ा में पत्नी दांव पर लगाने वाले क्या पति कहलाने योग्य होते हैं.., किसे महाबली पुकारती हो ?"
" (स्वगत) दुर्भाग्य, मैं अग्नि पुत्री होकर भी आज बुझी राख हूं।समय रहते अन्याय का प्रतिकार न करने का दण्ड भुगत रही हूं।आनेवाली पीढ़ियां भी मेरा उपहास करेंगी।कोई भी अपनी पुत्री को द्रौपदी नाम नहीं देगा।(प्रत्यक्ष)पितामह,आप भी मौन हैं,क्या सत्ता सुख व्यक्ति को इतना निरीह,इतना स्वार्थी और बेबस बना देता है...?किंतु, मैं निरीह नहीं हूं,मेरी एक गुहार पर मेरे सखा कृष्ण दौड़े आयेंगे।अब तुम सौ कौरव होते हुए भी पांच पांडवों से जीत नहीं पाओगे।मेरे आत्म सम्मान का हनन करनेवालों को मैं श्राप देती हूं।कोई भी दुर्योधन या दुशासन का नाम लेनेवाला नहीं बचेगा।पितामह, आपका मौन इतिहास क्षमा नहीं करेगा।गुरु द्रोण और कृपाचार्य भी अन्याय का साथ देने का परिणाम भुगतेंगे।(स्वगत)अपने इन बाहुबली पतियों पर क्या गर्व करूं, जिन्होंने कीचक का वध इसलिए नहीं किया कि कहीं अज्ञातवास का रहस्य न खुल जाए और न ही जयद्रथ का वध किया,जब वह मुझे रथ पर सवार कर उन्हें चुनौती दे कर ले चला था कि मुझे अपनी उपस्त्री बनाएगा।"
परिहास करते हुए दुशासन ने चीरहरण प्रारंभ किया," पुकारो ,द्रौपदी ,पुकारो अच्युत को,..हे वासुदेव, शीघ्र आओ…, मेरी लाज बचाओ.. हा..हा..हा..।"
"(स्वगत) मेरे आत्म सम्मान की रक्षा अवश्य होगी,ऋषि दुर्वासा का वरदान व्यर्थ नहीं जा सकता,जिस भांति मैंने उनकी लाज बचाई थी,वे भी मधुसूदन को मेरे सम्मान की रक्षा हेतु भेजेंगे।(प्रत्यक्ष) दुशासन, तुझे अपनी भुजाओं के बल पर भरोसा है,मुझे मेरे आराध्य देव पर।तूने मुझ पर तंज किया,पांच पतियों की पत्नी कहा।हां,हूं मै पांच पतियों के पत्नी,तब भी सती हूं,यदि नहीं तो यह सभा जिस मनोरंजन हेतु यहां एकत्रित हुई है ,अवश्य होगा।"
(अंत .. ,द्रौपदी ने जो कहा वही हुआ)
मौलिक
गीता परिहार
अयोध्या (फैज़ाबाद)