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बिहार चुनाव : मुद्दे तो बहाना हैं असली बात छुपाना है |
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अभी एक लेख पढ़ रहा था जिसमें किसी महानुभाव द्वारा यह लिखा गया है कि तेजस्वी यादव ने दस लाख सरकारी
नौकरियों का वादा करके बेरोजगारी के मुद्दे को सबके सामने लाया और चुनाव के मुद्दा आधारित बना दिया | इससे ठेकेदारी प्रथा पर लगाम लग जाएगी और दस लाख लोगों स्थायी सरकारी नौकरी मिल जाएगी | इसमें एक पाठक ने सवाल पूछा कि इससे आठ गुणा ज्यादा यानि अस्सी लाख सरकारी नौकरियाँ देने का वादा तो प्लूरल पार्टी कर रही है तो अगर बेरोजगारी मुद्दा है तो उस पार्टी का समर्थन क्यों नहीं करते | इसपर उन महानुभाव का जबाब था वह संभ्रांत लोगों की पार्टी है |
मुद्दे की आड़ में खेल वही खेले जा रहे हैं जातीय और साम्प्रदायिक | बस बेरोजगारी का मुखौटा लगाकर | जो और भी भयावह और रक्तरंजित करेगा बिहार की जमीन को | वैसे तो वर्तमान स्थिति में इतनी नौकरियाँ देना संभव नहीं लगता | फिर भी मान लेते हैं कि अगर इतनी नौकरियाँ दी जाती हैं तो क्या उसमें जातीय और साम्प्रदायिक आधार नहीं तलाशे जाएँगे | जिसकी शुरूआत तेजस्वी यादव ने यह कहकर कर दी है कि लालू राज में गरीब बाबू साहब के सामने सीना तानकर चलते थे | जैसे अभी गरीबों को सीना झुकाकर चलना पड़ रहा हो | मुद्दे वही हैं सालों पुराने बस बहाने बनाए जा रहे हैं नये | राजद इधर हार का सामना करती रही है | उसे लगा कि यादव और मुसलमान नाकाफी हो रहे हैं राजद को जिताने में , अगर और कुछ प्रतिशत वोट मिल जाए अन्य जातियों के तो हम सरकार बना सकते हैं और अपना खोया हुआ राज वापस पा सकते हैं | दस लाख सरकारी नौकरियों का मुद्दा इसी को ध्यान में रखकर लाया गया है | वरना अस्सी लाख सरकारी नौकरी में क्या बुराई थी |
उसे केवल इसलिए खारिज कर देना कि यह संभ्रांत लोगों की पार्टी है इसी मानसिकता की ओर इशारा करता है |
अगर बेरोजगारी मुद्दा होता तो यह सवाल सबसे जरूर पूछे जाते कि आप अपनी घोषणा में किए जा रहे इतनी सरकारी नौकरियों का वादा कैसे पूरा करेंगे | ये नौकरियाँ किन किन लोगों को दी जाएगी और कहाँ |
तब समझ में आता कि बेरोजगारी मुद्दा बना है | पर अभी यह मुद्दा नहीं मुखौटा है जो पार्टियाँ गरीबों और बेरोजगारों की मजबूरी और विवशता को अपने पक्ष में भुनाने के लिए लगाकर आयी है |
कृष्ण तवक्या सिंह
27.10.2020.