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वर्तमान समय में कन्या पूजन की सार्थकता
विषय बेहद रोचक है। इसका सपाट सा उत्तर नहीं है ;हां या ना में। पहले हम जानें कि इस परम्परा का प्रारम्भ कब और कैसे हुआ।
कन्या पूजन हमारी प्राचीन परंपरा है।
माता वैष्णो देवी ने अपने परम भक्त पंडित श्रीधर, जो निसंतान थे,उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें कन्या पूजन और कन्या भोजन कराने का आदेश दिया , जिससे उनकी मनोकामना पूरी हुई , उन्हें संतान सुख प्राप्त हुआ।
तब से आज तक सभी शुभ कार्यों का फल प्राप्त करने के लिए कन्या पूजन की परंपरा है।इससे सम्मान, लक्ष्मी, विद्या और तेज प्राप्त होता है और विघ्न,भय और शत्रुओं का नाश होकर माता का आशीर्वाद मिलता है।
प्रयोजन तो समझ में आ गया कि देवियों की मूर्तियों की स्थापना और पूजन करने से हम अपने चारों तरफ समुचित शक्ति से अपने घर को, अपने घर के सदस्यों को विभूषित करना चाहते हैं। क्या हम यह भी चाहते हैं कि हमारे घर की बच्चियां सच्चरित्र और साहसी हों, हर क्षेत्र में अग्रणी और आत्मनिर्भर हों, समाज की संवेदनहीनता को अपनी खुद की सामर्थ्य से भस्म कर दें, ऐसी मजबूत बेटियां ,जिनमें प्रखरता खोज और यह सोच हो कि वह किसी भी उत्पीड़न को बर्दाश्त नहीं करेंगी ? यदि हां,तो निश्चय ही कन्या पूजन आज भी सार्थक है और इस परम्परा की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगाना निरर्थक है।
विषय यह है कि वर्तमान में इसकी सार्थकता कितनी है। हम सभी जानते हैं कि हम सब में राम है तो रावण भी है। पहले रावण के पापों का घड़ा जब भर गया तो भगवान राम ने अवतार लेकर उसका वध किया किंतु आज आधुनिक रावणों के कुकृत्य पर हम मुखर होकर प्रतिक्रिया नहीं देते, समाज में घूमते असुरों को सुरक्षा और संबल देते हैं,अपने घर की बच्चियों और महिलाओं को रक्षात्मक विकास के लिए आगे नहीं बढ़ाते, हमारे व्यवहार के मानक असमान हैं।आवारा लड़कों पर हम रोक-टोक नहीं लगाते।बेटियों पर लगाते हैं। बेटियों की हर बात का हम विश्लेषण और मूल्यांकन करने लगते हैं,तो क्यों नहीं बेटों के अपराध पर हम लगाम लगाते?
सरकारें प्रयासरत हैं किंतु दंड देने की प्रतिबद्धता और जर्जर दंडनीय व्यवस्था, अंतहीन न्यायिक व्यवस्था अपराधियों को तोड़ने की जगह बढ़ावा देती है।पीड़िताएं पीड़ा, दंड ,सामाजिक उपहास और लांछन का दंश झेलती हैं।
नवरात्र पूजन में मूर्ति को दिया गया मान- सम्मान यदि घर में जीवित हो जाए ,तो बच्चियां या महिलाएं कुत्सित प्रभाव में आने से बच जाएं।
जैसे हम अपने धर्म द्वारा निर्धारित बातों को आंख मूंदकर मानते हैं,उसी तरह से सरकारी नीतियों और कार्यप्रणाली को भी मानें। जैसे,आत्मरक्षा बेहद महत्वपूर्ण विषय है। इसे बच्चों की प्राथमिक शिक्षा में शामिल किया जाए।
माँ की कोख में ईश्वर की रचना को समाप्त कर देना,(कन्या भ्रूण अपराध होने के बावजूद) नवजात बच्चियों को झाड़ियों, कूड़े के ढ़ेर पर तो कभी मंदिर के बाहर छोड़ देना, दुष्कर्म होने के बाद नारे लगाना या कैंडल मार्च करना क्या इससे समाज में परिवर्तन आ जाएगा ? ये प्रश्न हमसे अवश्य ही उत्तर मांगते हैं।
हर माता-पिता अपने बेटों को नारी का सम्मान करने की शिक्षा दें।कोई भी सीख घर से ही शुरू होती है।
लड़कियों को ही घर की ज़िम्मेदारी देना और लड़कों को खुला छोड़ देना कहां तक उचित है?पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर विराम लगाना ही चाहिए।
समस्याओं की जड़ तक जाने पर यह पता लगता है कि समस्या का जनक हमारा समाज ही है। जब मैं समाज कहती हूं तो उसमें कन्या पूजन करने वाला ही अकेला समुदाय नहीं है, इसलिए इसका समाधान भी संपूर्ण समाज को ही निकालना होगा।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हालिया रिपोर्ट के नतीजे शर्मसार करने वाले हैं। आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत में बच्चियों और महिलाओं की स्थिति कितनी बुरी है। बीते वर्ष में दुष्कर्म के कुल 32,023 मामले दर्ज किए गए। अधिकांश विशेषज्ञ मानते हैं कि तमाम मामले तो दर्ज ही नहीं हो पाते। 90% मामलों में दुष्कर्मी परिचित ही होते हैं।अधिकांश मामलों में दुष्कर्म परिवार की परिधि में ही घटित होते हैं। सेलफोन और सोशल मीडिया के उभार से दुष्कर्म की वहशी वृत्ति को विस्तार मिल रहा है।समाज मौन क्यों रहता है, राजनेता एक वर्ग विशेष की बच्चियों और महिलाओं के यौन उत्पीड़न पर ही क्यों हाय तौबा मचाते हैं ? समाज के हर वर्ग को अपना दायित्व पहचानना चाहिए।
वैसे सकारात्मकता से देखा जाए तो समाज में काफ़ी कुछ बदलाव भी हुए हैं। शिक्षा के प्रसार ने महिलाओं के आत्मसम्मान को बढ़ाया है। समाज ने कुरीतियों का बहिष्कार किया है।।सोच में नवीनीकरण आया है।सती प्रथा और बाल विवाह को हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं ,किंतु दहेज का भूत अभी तक हमारा पीछा कर रहा है।जब बेटी को गांव की जिम्मेदारी माना जाएगा।' बेटी बचाओ बेटी, पढ़ाओ,बेटी को आगे बढाओ'अभियान सफल होगा। इसमें यदि कमियां हैं तो उन्हें पाटना हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है।
अंतिम समाधान यह है कि केवल शेर पर सवार मां ही यह संदेश न दे कि वह अत्याचार ,दुराचार और व्यभिचार को रोक सकती है, बल्कि हर नारी यह संदेश देती हुई दिखाई दे कि वह अदम्य साहस ,स्वाभिमान और मानसिक स्वास्थ्य की स्वामिनी है।
नारी यदि सरस्वती बन कर जीवन का पाठ सिखा सकती है,तो वही आत्म सम्मान के लिए दुर्गा भी बन सकती है।अपना अस्तित्व बचाने और अपने अधिकारों को पाने के लिए महाकाली का रौद्र रूप धारण कर सकती है।वह पानी की तरह है, जो हर आकार ले सकती है और वक्त आने पर अपने सभी नौ रूप दिखाने में सक्षम है।उसकी गरिमा और इज़्ज़त किसी के हाथ का खिलौना नहीं है, जितनी शीघ्र हम यह स्वीकार कर लें , उतनी शीघ्र हम इस गूढ़ तथ्य को समझ जाएंगे कि यही वास्तविक शक्ति की उपासना है।
गीता परिहार
अयोध्या