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लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ-मीडिया - Kumar Sandeep (Sahitya Arpan)

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लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ-मीडिया

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लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ माना जाता है मीडिया को। पर आज की मीडिया मूल उद्देश्य से हटकर कार्य कर रही है। ऐसा लगता है मानों मीडिया पत्रकारिता की परिभाषा ही भूल चुकी है। अपने कर्तव्य का बखूबी निर्वहन करने की बजाय एक अलग ही कार्य करने में मग्न है आज की मीडिया। टीआरपी बढ़ाने हेतु एक ही मुद्दे पर पूरे दिन डिबेट करना कहाँ तक उचित है। मीडिया यदि एक ही मुद्दे को विस्तृत रुप देगी तो अन्य मुद्दों का क्या होगा। देश में अन्य मुद्दे भी तो हैं जिन पर आवाज़ उठाने की आवश्यकता ही नहीं अति आवश्यकता है। मीडिया को अपने कार्यक्षेत्र का निर्वहन पूरी शिद्दत से करने की ज़रूरत है, अन्यथा एक वक्त ऐसा भी आएगा जब लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ मीडिया से सबका विश्वास ही उठ जाएगा।

जिस तरह साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है ठीक उसी तरह समाज के लिए मीडिया भी दर्पण का कार्य करती है। मीडिया को अपना कार्य कुछ इस तरह करना चाहिए कि लोगों का विश्वास मीडिया पर गहरा हो। और यह तभी संभव है जब मीडिया पक्षपात किए बिना अपना कार्य शिद्दत से निभाएगी। मीडिया यदि निष्पक्ष नहीं होगी तो धीरे-धीरे लोगों का विश्वास कम हो जाएगा मीडिया पर।

विभिन्न सूचनाओं व जानकारी द्वारा मीडिया का यह कार्य है कि वह आम जनमानस को जागरूक करे। सत्ता के सिंहासन पर विराजमान जनप्रतिनिधियों से प्रश्न करे कि देश के मौजूदा हालात क्या हैं। चाहे सत्ता में कोई भी सरकार को मीडिया को सबसे प्रश्न करना चाहिए साथ ही बेसहारों की आवाज़ को दूर तक पहुंचाकर बेसहारों का सहारा बनना चाहिए। असहाय दीन दुखियों के दर्द को कलमबद्ध कर उनके दर्द की आवाज़ बन उन्हें उचित मान-सम्मान व अधिकार दिलवाना चाहिए मीडिया को। पर आज की मीडिया इस कार्य से इतर कुछ अलग कार्य ही कर रही है। बेरोजगारी चरम पर है पर पत्रकार द्वारा सरकार से एक भी प्रश्न नहीं किया जा रहा है कि बेरोजगार युवाओं का क्या होगा। मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए बिना किसी वजह के मुद्दों पर पूरे दिन चर्चा आयोजित की जाती है। टेलीविजन पर एक ही मुद्दे पर डिबेट देखते-देखते लोगों का मन उब जाता है। पर मीडिया कर्मियों का मन नहीं उबता है। आखिर उन्हें टीआरपी जो बढ़ाना है, आम मुद्दों से जनमानस का ध्यान जो भटकाना है। पर यह कतई सही नहीं है। मीडिया को अपने कर्तव्यों को किसी हाल में भूलना नहीं चाहिए।

बेसहारे भर दिन दर-बदर की ठोकरें खाते हैं, गरीबी बेइंतहा सताती है बेसहारों को पर एक भी मीडिया कर्मी अपने चैनलों पर उनके दर्द का साथी बनने के लिए राजी नहीं है। कम से कम उनके दर्द को टेलीविजन पर दिखाकर सता के सिंहासन पर विराजमान सत्ता लोभियों तक तो पहुंचा ही सकती है मीडिया। पर नहीं मीडिया ऐसा नहीं करती है। मीडिया को अपने कर्तव्य का बखूबी निर्वहन निष्पक्षता से करना ही होगा अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब मीडिया पर से लोगों का विश्वास पूर्णतः उठ जाएगा।

©कुमार संदीप

मौलिक, स्वरचित

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