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विद्वान और विद्यावान - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कहानीप्रेरणादायक

विद्वान और विद्यावान

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विद्वान और विद्यावान

प्रतिवर्ष शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी रामलखन क्वार - कार्तिक मास में रामचरित मानस का आयोजन करते थे।जाने - माने पंडित पुरुषोत्तम जी कथा सुनाते।बहुत सुरीला कंठ था पंडितजी का।कथा को शुरू हुए पांचवां दिन था।पंडितजी बड़े मनोयोग से चौपाइयां हारमोनियम की धुन पर गाते, उनका सुंदर, सरल शब्दों में अर्थ बताते,कुछ - कुछ अंतराल पर रामधुन बजाते।।दूर - दूर से श्रद्धालु सुनने आते। सुनयना अपने घर से ही कथा का रसपान करती।क्यों..,क्योंकि उसका घर दूसरी मंजिल पर था और कथा ठीक नीचे होती थी। बीच- बीच में पंडितजी धर्म से इतर सामाजिक, घरेलू और मज़ेदार बातें भी करते।उद्देश्य होता श्रोताओं की नींद भगाना।पंडितजी बहुत ज्ञानी व्यक्ति थे।एक प्रसंग जो उन्होंने वर्षों पहले सुनाया था,वह आज भी प्रासंगिक है,जिसे सुनयना ने मेरे साथ सांझा किया था।यह था विद्वान और विद्यावान में अंतर।आज मैं आपसे सांझा करती हूं।
पंडित जी ने श्रोताओं को बताया कि रावण विद्वान था जबकि हनुमान जी विद्यावान थे। उन्होंने बताया कि
विद्वान और विद्यावान में किस प्रकार अंतर है।वह ऐसे कि रावण के दस सिर थे।उन दस सिरों में चार वेद और छह: शास्त्रों का समावेश था।दस सिर और वे दसों भरे हों ज्ञान से,तब वह व्यक्ति वास्तव में क्या कहलाएगा.. विद्वान ही न..तो इस हिसाब से रावण विद्वान था।
लेकिन विडम्बना क्या हुई ? छलपूर्वक सीता जी का हरण करके ले आया।विद्वान यदि अपनी विद्वत्ता के कारण दूसरों को हानि पहुंचाए तो उसका पुण्य नष्ट हो जाता है।
अभिमानी की विद्वता उसकी कीर्ति को मिट्टी में मिला देती है।
वहीं हनुमान जी का उदाहरण लें,वे महाबली और महापराक्रमी हैं, किंतु वे रावण के दरबार में उससे हाथ जोड़कर सीताजी को छोड़ देने की विनती करते हैं, तो क्या हनुमान जी में बल नहीं है, क्या वे रावण से भयभीत हैं ? नहीं, ऐसी बात नहीं है।विनती कौन करता है ? वह जो भाव से परिपूर्ण हो,वही
विनित होता है।
किंतु जो अहंकारी हैं उन्हें विनय छू भी नहीं पाता।रावण हनुमान से कहता है," तुम क्या हो, यहाँ देखो कितने लोग हाथ जोड़कर मेरे सामने खड़े हैं !" उसे लोगों के विनय में दासत्व और भय दिखता है।
यही विद्वान और विद्यावान में अन्तर है।जिस समय हनुमान जी रावण को समझाने गये, उन्होंने देखा
वहां दरबार में देवता और दिग्पाल हाथ जोड़े खड़े थे। वे रावण की तनी हुई भृकुटी की ओर देख रहे थे, अर्थात वे भयभीत थे।परन्तु हनुमान जी भयभीत नहीं थे।
रावण ने कहा, “तुमने मेरे बारे में सुना नहीं है ? तू बहुत निडर दिखता है !”
हनुमान जी बोले, “क्या यह जरुरी है कि तुम्हारे सामने जो आये, वह डरता हुआ ही आये ?”
रावण बोला, “देख लो, यहाँ जितने देवता और दिग्पाल खड़े हैं, वे सब डरकर ही खड़े हैं ।”
हनुमान जी बोले, “उनके डर का कारण है, तुम्हारी तनी हुई भ्रकुटी।परन्तु मैं भगवान राम की भृकुटी की ओर देखता हूँ ।"
"उनकी भृकुटी कैसी है ?"रावण ने हुंकार लगाई।
हनुमानजी बोले,"जिनकी भृकुटी टेढ़ी हो जाये तो प्रलय हो जाए और उनकी ओर भक्ति रखने वाले पर स्वप्न में भी संकट नहीं आए।मैं उन श्रीराम जी की भृकुटी की ओर देखता हूँ।"
रावण हंसा, विद्रूप भरी हंसी, “यह विचित्र बात है । जब राम जी की भृकुटी की ओर देखते हो तो मेंरे आगे हाथ क्यों जोड़ रहे हो ?"
हनुमान जी बोले, “यह तुम्हारा भ्रम है।हाथ तो मैं उन्हीं को जोड़ रहा हूँ ।”
रावण बोला, “ क्या अनाप-शनाप बोल रहा है,वह यहाँ कहाँ हैं ?”
हनुमान जी ने कहा,“यही समझाने आया हूँ । मेरे प्रभु राम ने कहा था, सबमें मुझको देखना।इसीलिए मैं तुम्हें नहीं, तुझमें भी भगवान को ही देख रहा हूँ ।”
रावण खल और अधम कहकर हनुमान जी को सम्बोधित करता है।विद्यावान का लक्षण है कि अपने को गाली देने वाले में भी उसे भगवान दिखाई देता है।
"विद्या ददाति विनयं ।
विनयाति याति पात्रताम्।"
पढ़ लिखकर जो विनम्र हो जाये, वह विद्यावान।
जैसे बादल जल से भरने पर नीचे आ जाते हैं, वैसे विचारवान व्यक्ति विद्या पाकर विनम्र हो जाते हैं।
इसी प्रकार हनुमान जी हैं, विनम्र और विद्यावान जबकि रावण है,केवल विद्वान।
मौलिक
गीता परिहार
अयोध्या (फ़ैजाबाद)

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दादी की परी
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