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यह एक कल्पना है हमारे सबसे अंतिम कल की और दुर्भाग्य देखिये यह कोई सुखद कल्पना नहीं है. सुखद तो श्रीगणेश ही होता है, अंत तो दुःखद ही लगता है. अब हमारी मानवी सृष्टि का प्रथम अध्याय भले ही मनु-शतरूपा द्वारा रचित हो मगर अंतिम अध्याय हमारे स्वयं के हाथों ही लिखा जायेगा, यह निर्विवाद, अपरिहार्य और अकाट्य सत्य है.
अंतिम मानव की परिकल्पना के लिए आवश्यक है कि इतिहास में पीछे लौटकर वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा संकल्पित आदिमानव और उसके क्रमिक विकास का अध्ययन और मनन करना होगा. इसके अनुसार आदिमानव वानर से क्रमशः विकसित होकर हम आज के मानव बने हैं.
मानव पहले जंगल के भीतर रहता था और अब अपने अपने भीतर जंगल बसा लिया है. पहले शरीर से नंगा था और धीरे-धीरे वृक्षों की छाल, फिर पशुओं की खाल, फिर धीरे-धीरे कपास, रेशम जैसे प्राकृतिक संसाधनों से
और अब कृत्रिम रूप से विकसित परिधानों को पहनकर स्वयं का नंगापन ढक रहा है मगर अब उसका दम घुटने लगा है और फिर स्वयं के और दूसरों के चीरहरण में जुटकर चेतना को खोकर पहले से भी अधिक नंगा होता जा रहा है. पहले सिर्फ "हमाम में सब नंगे" होते थे मगर आज हम सार्वजनिक रूप से जीवन के हर क्षेत्र में नंगे हो रहे हैं. पहले भी बडी़ मछली छोटी मछली को खाती थी और जिसकी लाठी, उसी की भैंस हुआ करती थी. पहले यह बाहुबल से होता था किंतु आज भी वही धनबल और छलबल द्वारा होता हुआ दिख रहा है.इतिहास एक नये रूप में ही सही स्वयं को दोहरा रहा है.
यदि पौराणिक दृष्टि से देखें तो हम पायेंगे कि हरि के दस अवतारों में पहले दो अवतार ( मत्सय और कच्छप ) जलचर जीव के रूप में थे. तीसरा अवतार ( वराह ) थलचर जीव के रूप में, चौथा अवतार नृसिंह, आधा मानव और आधा वनराज सिंह के रूप में और इनके बाद मानव रूप में भगवान प्रकट हुए. अर्थात् पहले जलजीव फिर थलजीव और फिर उनमें सबसे सामर्थ्यवान् उनका मुखिया सिंह धीरे-धीरे मानव रूप में विकसित हुआ. डार्विन का सिद्धांत, " सबसे सशक्त का अस्तित्व " कुछ ऐसा ही कहता है.
इस प्रकार वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और पौराणिक, ये तीनों दृष्टिकोण आदिमानव से आज के इस तथाकथित सभ्य मानव तक की इस क्रमिक विकास-यात्रा की लगभग एक जैसी ही कहानी कहते हैं. सत्ययुग से त्रेतायुग, त्रेतायुग से द्वापरयुग और द्वापरयुग से कलियुग तक यह क्रमिक परिवर्तन हमें बाहर से सभ्य, विकसित और तकनीकी रूप है अधिकाधिक समृद्ध बनाता गया किंतु मन से उतना ही असभ्य, जंगली और चेतनाशून्य बनाता रहा. जीवनमूल्य शून्य में बिखरते चले जा रहे हैं. अपनी अन्नपूर्णा माँ प्रकृति को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझकर, उसका पेट चीरकर,स्वयं अपने ही हाथों अपना अंत पास बुलाकर आज मानव इस स्थिति में पहुँच गया है कि चाँद और मंगल तक अपनी गृध-दृष्टि डालने वाला यह शक्तिमान मानव एक अतिसूक्ष्म विषाणु से भयाक्रांत होकर दरवाजे बंद करके "त्राहि माम्" करने को विवश है.
यदि यही मानव का अंतिम पडा़व है तो आगे कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है. संभवतः यह तो केवल एक झाँकी है और आगे बहुत कुछ देखना बाकी है. आगे-आगे देखिये होता है क्या. यदि हम आज की इस त्रासदी से बाहर निकलकर प्रकृति माँ की गोद में एक बच्चे की भाँति केवल दुग्धपान करते रहे तो संभव है हम इस झंझावात की दिशा बदल सकेंगे. हाँ, यदि हम दुग्धपान के साथ-साथ रक्तपान भी करते रहे तो आगे भी क्या-2 देखने को मिलेगा, यह हम समझ सकते हैं.
दुर्भाग्यवश हम अधिक जानने और कम समझने में विश्वास करते हैं.
विज्ञान मानव की सबसे अमूल्य उपलब्धि है किंतु यदि हम इस मील के पत्थर तक पहुँचकर दिग्भ्रमित होकर विनाश की ओर चलते रहे तो फिर अंतिम मानव हमसे अधिक दूर नहीं है और हम स्वयं मील का एक पत्थर बनकर विकास से विनाश की ओर अपनी यात्रा के विवश साक्षी बनकर रह जायेंगे. हम चेतना खोकर अपने हाथों से अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारते हुए स्वयं का दुर्भाग्य लिखते रहे तो जरा सोचिये कहाँ पर पहुँचेंगे. हमने हाथ मशीनों को भेंट कर दिये और अब मस्तिष्क भी कंप्यूटर और फिर रोबोट के हाथों में समर्पित कर रहे हैं. फिर रोबोट को बनाने और चलाने वाला भी रोबोट ही होगा और फिर वही रोबोट शायद भस्मासुर बनकर उस अंतिम मानव के सिर पर हाथ रखने के बजाय इस बार उसके सिर पर बैठकर उसके तन-मन-धन और मन-बुद्धि-चैतन्य का स्वामी बनकर उसका स्थान ले लेगा.
जी हाँ, मुझे तो यही लगता है कि अंतिम मानव रोबोट ही होगा जिसे वह स्वयं सृजित करके स्वयं के सृजन की इतिश्री का कारण बनेगा और,
" जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी ",
को चरितार्थ करते हुए भगवान का अंतिम दशम अवतार भी रोबोट ही होगा. इस प्रकार यह रोबोट नर से उसके नारायण को भी छीन लेगा.
ईश्वर करे मेरी यह भविष्यवाणी मिथ्या हो और हम पुनः " जीवेम शरदः शतम् " की ऊँचाइयों को छू सकें.
द्वारा :सुधीर अधीर