कविताअतुकांत कविता
नियति *
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निशा में भटके पखेरू,
ज़िन्दगी भटकी - सी है।
डाल भी मिलती किसी को,
किसी की अभिलाषा-सी है।।
कर्म भी है लिप्त कल्मष,
कहीं सत्कर्म सरिता बहे।
आतताईयों की परिधि-
पुण्य भी संकुचित हो बहे।।
गूंजती अट्टालिकाएं,
बहती रहे बयार - चंदन।
हैं दूर से उठती कहीं-
वो लोम - हर्षक रव क्रंदन।।
सरल - मन पर आच्छादित,
दिनकर तपस- सी इच्छाएं।
अति तीव्र हों तो झुलसे-
अपरिमित मानव - इच्छाएं।।
कल्मष=पाप। रव=ध्वनी
साधना गोठवाल इन्दौर