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ज़ख्म - शिवम राव मणि (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

ज़ख्म

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क्या बताऊँ क्या हुआ है साथ,
बस एक कश्ती चल रही थी,
बाँट भी ना पाये जिसे,
साथ मे वो ज़ख्मों की बस्ती चल रही थी।

न तीर से, न तलवार से
सीने में जो गड़ता गया,
काँटा भी न हो सका
जो बदन में मेरे एक चुभन दे गया।

कहूँ तो एक वक्त था
जब रात की अँधेरियों से दोस्ती हो गई,
वो मुझे जगाते रह गये
और दुनिया सोती रह गई।

अमावस के सन्नाटे में
जब दर्द भी गर्जना बन गये
देख तड़प में किसी की नींद खुली,
वो भी बेबस होकर मुहँ पर चादर ओढ़ गये।

राहत मिले
तो अन्दर एक डर समा जाए
खोदता गया जो भीतर ही भीतर,
मेहमान-नवाजी वो मुझसे ही करवाये।

चोट भी एसी लगी है
जिसमें लहू भी ना बहें,
दर्द होता रहे और
घाव का निशान भी ना रहें।

वेदना भी जब गूँज उठी
उस काली रात की चुपाई में,
ज़ख्म तो जरूर मिला है
उस चोट की सुनवाई में।

शिवम राव मणि©

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