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लुकाछुपी - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

लुकाछुपी

  • 235
  • 7 Min Read

( उम्र के पचपन में पहुँचकर तन बुढा़पे की ओर आगे बढ़ता है और मन बचपन की ओर लौट चलता है. तन और मन एक दूजे संग " लुकाछुपी " सी खेलते जीवन को एक भूलभुलैया सा बना देते हैं. कुछ इस तरह... )

दबे पाँव आ, 
दस्तक देकर,
सतरंगी सी यादें लेकर
चोरी-चोरी, चुपके-चुपके,
खुद से ही जैसे छुप-छुप के,
साया सा बन छाता कौन
मन को यूँ रंग जाता कौन
पचपन में मन खोजे बचपन,
कानों में रस घोलता 
मुखर सा मौन
यह आँखमिचोली, 
लुका-छुपी खेलता कौन

अहसासों के पंख लगाकर
बार-बार मन को भरमाकर,
पलकों के साये तले कुछ
महकते से राज जगाकर
अनजाने ही बरबस आकर,
भूलभुलैया में भटकाकर
उम्र को जबरन 
पीछे की ओर ठेलता कौन
यह लुकाछुपी खेलता कौन

मन की धुँधली रेखाओं को
सुंदर सा आकार देकर
मन के ताने-बाने में
गुजरे हुए जमाने के
भूले-बिसरे अहसासों के
मखमली से धागे लेकर
तार-तार मन को फिर से यूँ
आकर सीता जाता कौन
मन क्यूँ दिनों, महीनों, सालों
पीछे जाकर जीता यूँ
यादों के दोने में भरकर
बूंँद-बूँद यूँ, घूँट-घूँट क्यूँ
जीवन-रस यूँ पीता क्यूँ
इस उम्र के इस 
रूखे, गर्म सूखे रेत में,
बंजर से रूखे मन के 
इस सूखे खेत में
सावन की घटा बनकर,
मनभावन सी छटा बनकर,
दिल खोलकर
अंजलि भर-भर,
जीवन फिर से ला,
उडे़लता कौन
यह लुकाछुपी खेलता कौन

पीछे से आकर, 
आँख मूँदकर
मन के कोने-कोने में
सुंदर, भोले और सलोने से
कुछ मठ्ठी  भर स्वप्न ढूँढकर,
जीवन की इस पहेली में,
इसकी अधखुली हथेली में
अनुत्तरित से प्रश्न ढूँढकर
मन के सोये तार छेड़ता कौन
बार-बार यूँ 
लुकाछुपी खेलता कौन

द्वारा: सुधीर अधीर

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