कवितालयबद्ध कविता
आँखों का हर एक
अधूरा स्वप्न
बूँद-बूँद कर रिसता,
हर प्रश्न, है जिसका
इस पापी पेट से
एक सीधा रिश्ता
कड़वे सच की चक्की में
फँसा आज घुन बनकर पिसता
हाँ, इस पापी पेट का
हर एक सवाल
धधक रहा
बनकर बवाल
मन में बनकर
भीषण ज्वाल
कर रहा है भस्म आज
पागल मन के
पागलपन से
बुने सुनहरे मोहजाल
हाँ, तोड़कर हर सम्मोहन,
लच्छेदार भाषणों के
पगलाते से
वे मनमोहन संबोधन
ये सभी आज,
हर रोज निराशा में ढलती
हर एक आस
हर जगह पर
समाधान खोजती
यह भूख-प्यास
पटरियों और सड़कों पर
रोज बिखरती
टुकड़ा-टुकड़ा जिंदगी
चमचमाते माॅलों में
दनदनाती होलसेल सी
जिंदगी की रेलमपेल,
इन सबसे लगती बेमेल
इनके झटके से
अपनी जड़ से
उखडी़-उखडी़
खुदरा-खुदरा जिंदगी
कुछ अनुत्तरित से प्रश्न लिये
थके पाँव, झुकते कंधों पे
नियति या फिर नीयत के
इन सब गोरखधंधों से,
पथराई आँखों से बिखरे
धूलि-धूसरित स्वप्न लिये
मजदूर को मजबूर बनाती,
हर हिम्मत को दूर भगाती,
बंदिशों के धागे से
अपने होंठों को सिये हुए
घूँट-घूँट हर एक हलाहल
नीलकंठ बनकर पिये
इस दोराहे पर खडी़ जिंदगी
इस अनजाने, अनचाहे से
चौराहे पर खडी़ जिंदगी
छालों के जालों से बिँधते
पाँवों के ये लाल निशान
हाँ, खुद के ये तीन निशान,
रोटी,कपडा़ और मकान,
इन तीनों का पता पूछती,
अनजाने, अनपहचाने से
लगते खुद के ही वजू़द को
फिर पाने को जूझती,
सपनों के एक खंडहर की
काई लगी मुंडेर से
झाँकती कुछ बेबस सी
एक अदद जिंदगी
आवारा सी
सड़कों पर
पल-पल
धूल फाँकती
एक अदद जिंदगी
उम्मीदों के इस कचरे के ढेर पे
बिखरे दाने चुग-चुगकर,
कुछ पल जीने को माँगती है
एक मदद जिंदगी
बनते-मिटते,
लुटते-पिटते,
बूँद खून की
बनकर रिसते
वो अरमान,
कुछ और नहीं,
हाँ, बस वही
जीवन के वो तीन निशान,
रोटी, कपड़ा और मकान,
वही अनबुझे से सवाल,
बार-बार यूँ
सिर उठाते हुए
इस पापी पेट से जुडे़
ये उलझे से,
अनसुलझे से,
जलते-बुझते से
ये सवाल
द्वारा: सुधीर अधीर