कविताअतुकांत कविता
बिना क़ागज क़लम के भी कभी बन जाती है कविता
दिल की बंजर जमीं पर फसल सी लहलहाती है कविता,
कर देती है हरा भरा मन का एक एक कोना
जुबां से निकला हर एक शब्द लगता है जैसे खरा सोना,
एकांत की गोद में, झुरमुटों की ओट में
दिल से अपनी बातें करना, एक दूजे की पीड़ा हरना
कभी-कभी अच्छा लगता है....।
कभी कागज की नाव, कभी कीचड़ में पांव
कभी अमुवां की छांव, वो बचपन का गांव,
याद आने लगते हैं एक-एक कर, एक हूक सी उठती है
बह जाता है यादों का झरना तो बन जाती है कविता...।
मचल उठती हूं मैं, उस अतीत में जाने को
फिर एक मंद सी मुस्कान तैर जाती है होठों पर,
जब कुछ इशारा सा करता है दिल
तैयार करता है मुझे वर्तमान में मन लगाने को,
लौट आती हूं मैं वर्तमान में, क्या खोया क्या पाया
इसका जोड़ लगाती हूं....
सोचते सोचते बन जाती है फिर नई एक कविता।।
अमृता पांडे