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मैं छाँव तेरे आँगन की - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

मैं छाँव तेरे आँगन की

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  • 17 Min Read

मैं छाँव तेरे आँगन की,
एक ठंडी सी और घनी सी
ठाँव तेरे आँगन की

आती हूँ बन साँझ,
शर्माती सी, दबे पाँव
एक खामोश आहट सी
मैं छाँव तेरे आँगन की

बनकर धरती की चहेती,
लाड़ली सी, साँवली सी,
एक छोटी सी,
एक खोटी सी बेटी,
लुभावनी, मनभावन सी
मैं छाँव तेरे आँगन की

उतरती हूँ आसमान से,
नीली सी छत के साये से,
अपनी भगिनी, संगिनी,
हर रोज लगती नयी,
नवेली सी सहेली
धूप का थामकर हाथ,
अपने धुँधले से रंग में
लिपटी, सिमटी सी,
उसके इतराते, खिलखिलाते,
मदमाते और इठलाते,
उजले-उजले से
रूप-रंग के साथ-साथ

हम दोनों बारी-बारी से,
अपनी-अपनी पारी में,
बाँटने को,
अपने-अपने आँचल से,
हर एक घर के आँगन में,
अपने-अपने प्यार की
उजली-धुँधली सी सौगात,
उनमें सिमटे अल्हड़ जज़्बात,

खोजती सी
अपने-अपने हिस्से का
एक खुला सा आँगन,
उसमें सिमटा एक
नेह भरा आँचल,

दोनों संग-संग, साथ-साथ,
डालकर हाथों में हाथ,
एक दूजे संग करती ठिठोली
और अल्हड़ सी आँखमिचोली,
बना पवन के पंखों पे
श्वेत-श्याम सी रंगोली

वो रूपगर्विता,
आत्ममुग्धता से
बहकी और चहकी सी
बादलों से छन-छनकर,
चंचलता से मचलकर,
उमंगों से उछलकर,
कभी-कभी
एक हरी भरी सी डाली पर
बिछी, मुलायम से बिछौने
सी हरियाली पर
कुछ पेडों की चोटी पे,
ममता की उस गोदी में,
पाकर हरा-भरा दुलार,
चहका-महका सा संसार,
बच्ची सी बन
फूले नहीं समाती है,
और आँखें मूँदकर
वहीं पर लेट जाती है

और उसे उस मदहोशी में
बोलती सी खामोशी में,
छोड़ वहीं पे,
चोरी-चोरी, चुपके से
तुम्हारी यह शर्मीली छाँव
सहमी-सिमटी सी,
सजीली छाँव,
ढूँढने सपनों का गाँव,
उस नीलकंठ तरु के
चरणों में बैठ जाती है

वह बीच-बीच में
कुछ जुगनुओं की तरह,
ना जाने किस मकसद से,
और जाने किस वजह,
नाचते से पुरवाई के
झोंके से,
पत्तियों के हरे-भरे से
छोटे से झरोखे से,
झाँकती सी रहती है,

किसी माॅडर्न आर्ट की,
कुछ अजीबो गरीब सी
उजली चंद आकृति बनकर,
कुदरत के उस चित्रकार की
अद्भुत कलाकृति बनकर,
मेरे धुँधले से, गहराते से आँचल में
कुछ सुनहरे, कुछ रुपहले
मुस्कुराते से कुछ फूल
टाँकती ही रहती है

साँझ ढलते ही मगर,
मुझे अकेला छोड़कर,
बेदर्द, बेवफा सी बनकर,
मुझसे यूँ मुँह मोड़कर
दलबदलू सी बन,
सहसा पाला बदलकर,
धरती के दूजे छोर पर,
पतली सी गली से निकलकर,
संध्या के हाथों से फिसलकर,
उस दुनिया की किस्मत चमकाने
उसकी रात को महकाने,
नजर चुकाकर,
बेशर्मी से मुस्कुराकर,
चली जाती है

बस उसी के पहलू में,
उसकी मजबूत बाँहों में,
सधी-बँधी सी,
छली-ढली जाती है

पर मुझको अब,
यह सब नहीं अखरता है,
उसके जाते ही मेरा रुतबा,
दूर-दूर तक बढ़ता है
इस रुतबे में लिपटा कुनबा
सजता और सँवरता है

सृष्टि के इस दिव्य,
अद्भुत यज्ञ-मंडप में
उमंगों की तरंगों के
कलरव में,
इस धरती के कण-कण में,
इस मधुनिशा के
क्षण-क्षण में

मेरे इस काले साये में,
अँधियारे के सरमाये में,
हर प्यार अपनी मंजिल पा
परवान चढ़ता है

सृष्टि का हर महका आँचल
उसके मन का चहका आँगन,
कुछ इस तरह निखरता है,

सृजन-वाटिका का हर एक पुष्प,
होकर मानो मंत्रमुग्ध,
सुरभि बन बिखरता है

हर एक वियोग
संयोग को मचलता है
हाँ, मुझी से इस धरा का
जीवन-चक्र चलता है

जलता रहे वो दिलजला,
जो मुझे देखकर जलता है

हाँ, अनंग के,
इस अनंत से,
भरमाये से,
लहराये से दायरे में,

बहकी- बहकी साँसों के
इस आशिकाना मुशायरे में,

मदमाती सी रातों में,
चंद मुलाकातों में
बिछते से, कुदरत के
इस पलक-पाँवडे़ में

तरसते से,
और बरसते से
अरमानों के
इस जमावडे़ में

बर्फ जैसा सर्द, सख्त,
हर एक लहजा,
अहसासों की आँच पे
बूँद-बूँद ढलता और
पिघलता है

हाँ, मुझी से होकर ही,
मुझमें ही यूँ खोकर ही,
सपनों को यूँ बोकर ही,
कुछ जागकर, कुछ सोकर ही
मेरी इस शबनम में भिगोकर ही,
पलकों पर मोती ढोकर,

जिंदगी की हर सुबह का,
जीने की हर एक वजह का
रास्ता निकलता है

गुमनामी में लुकी-छुपी,
प्रकृति की काली भृकुटि,
अदृश्य बसंत की बयार,
मंद-मंद शीतल बयार,
छलकती, ढलकती
बनकर बयार
एक छोटी सी मैं
एक बदली सावन की
मैं छाँव तेरे आँगन की

द्वारा : सुधीर अधीर

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