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यादों के झरोखे से - Kamlesh Vajpeyi (Sahitya Arpan)

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यादों के झरोखे से

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  • 24 Min Read

"यादों के झरोखे से"
*साब लौटते में मिल कर जाइयेगा,,,,*
अगस्त ,सन 2010 की बात है उत्तर काशी से गंगोत्री अपनी टैक्सी से जा रहा था।भराड़ी के पास रोड पर पहाड़ टूट कर गिर गया था ।इस कारण आधे घण्टे से रास्ता जाम था ।हम लोगों ने सड़क पर एक चौड़ी जगह देख कर वहीं गाड़ी किनारे लगा दी।धूप कुछ तेज थी।मैं किसी छाया की तलाश में था,जहां आराम मिल सके।तभी मजदूरों का एक तम्बू दिखा, उसमें दो तीन मजदूर भी थे।मैं वहाँ गया और तम्बू की छाया में खड़ा हो गया।तभी एक मजदूर मुझे खड़ा देख कर प्लास्टिक की एक काम चलाऊ कुर्सी रखते हुये बहुत अदब से बोला "साब इसपर बैठ जाइये।रास्ता अभी एक घण्टे से पहले नहीं खुलेग"।कुछ देर में मौसम एक दम से बदल गया और बारिश होने लगी।मेरे बाकी साथी कार में ही थे।
वो दोनों मजदूर भी मेरे पास ही जमीन पर बैठ गये।हम लोग आपस में बात चीत करने लगे। बात चीत का विषय लैंड स्लाइड से होता हुआ उनके घर परिवार तक पहुँच गया।एक मजदूर ने बताया वह झार खण्ड का रहने वाला है, दूसरे ने अपने को नेपाल के धनगढ़ी का रहने वाला बताया ।उसका नाम धान सिंह रावत था।उसने यह भी बताया कि उसके भाई की वहाँ किराने की दुकान भी है।
बारिश तेज हो गई थी पर सड़क से मलवा हटाने का काम अभी भी हो रहा था।जैसा कि पहाड़ों में होता है
थोड़ी सी देर में ही हम लोग पूर्व परिचित से हो गए थे।
धान सिंह बोला "साब चाय बना लायें,हमारे हाथ की पियेंगे"?उसका प्यार भरा आग्रह और ऊपर से उसका यह पूछना कि "हमारे हाथ की चाय पियेंगे"?उसकी यह दोनों बात सुन कर तो मेरे मना करने की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी।दूसरे ऐसे मौसम में चाय कौन मना करता है।
मैंने धान सिंह से कहा पर दो कप और बना लेना मेरे दो लोग कार में भी बैठे हैं।उसने कहा "जी साब।"
पर शक्कर बहुत कम रखना।
पावडर वाले दूध से कुछ ही देर में गैस में चाय बन गई।बारिश कुछ कम हो गई थी।
बिहारी मजदूर मेरे बताये हुये कार नम्बर पर चाय दे आया।
अपने उन मजदूर दोस्तों के साथ चाय पीने का आनन्द लेने के बाद मैं जब चलने लगा तो धान सिंह और देश राज ने मेरे पैर भी छुये।गले मिलकर मैंने उनसे विदा ली।उन्होंने ने कहा "साब लौटते हुये फिर आइयेगा।"
जल्द ही रास्ता खुल गया और हम लोग गंगोत्री की तरफ "माँ भागीरथी की जै "बोल कर चल दिये।
तीसरे दिन हम लोग गंगोत्री से जब लौट रहे थे, तो सोचा चलो अपने दोस्तों से मिल लिया जाय।मैंने तम्बू के पास गाड़ी रुकवाई पर वहाँ पर देश राज और धान सिंह दोनों नहीं थे।कुछ दूसरे मजदूर वहाँ थे।मैंने दोनों का नाम लेकर पूछा कि वह दोनों कहाँ है।मेरी बात सुनकर सब मौन साध गये।कोई कुछ बोला नहीं।मैं कुछ और पूछता तब तक देश राज कहीं से मेरे पास आ गया।और मुझे इशारे से बुला कर कुछ दूर ले गया।
उसके बाद उसने रुंधे गले से बताया "साब कल धान सिंह ऊपर पहाड़ी से गिरकर मर गया।" उसकी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था कि तीन दिन पहले जिसके साथ यहां बैठ कर चाय पी थी, वह हँसमुख इंसान अब इस दुनियां में नहीं है।उसने सारा किस्सा विस्तार से बताया।मैंने पूछा उसका दाह संस्कार कैसे हुआ? देश राज ने बताया, "साब उसकी लाश ढूढ़ने की कोई कोशिश ही नहीं की गई।बस ठेकेदार ने उसकी गुमशुदी की रिपोर्ट लिखा दी और कुछ पुलिस को दे, दिवा, दि या।"
मैंने पूछा उसके घर खबर करी ?
तो उसने कहा "नहीं साब ठेके दार काहे को अपनी आफत बढ़ाये गा।दो चार महीने बाद सब भूल भाल जाएंगे।कौन मजदूर कहाँ चला जायेगा पता भी नहीं चलेगा।फिर उसका तो कोई साथी भी यहाँ नहीं है।उसके घर वालों को तो शायद कभी ये पता ही नहीं चल पाएगा कि धान बहादुर मर गया हैं।अब लौट कर कभी नहीं आएगा।पता नहीं कब तक उसके घर वाले उसका इंतजार करेंगे,अब आता होगा मेरा धान सिंह खूब सारी सौगात और ढेर सारे रुपये लेकर।"
मैं अपने आँसुओं को नही रोक सका..! ।देश राज के कंधे पर हाथ रख कर, विदा ली और गाड़ी में बैठ गया।
धान सिंह की भली सूरत याद आ ही रही थी पर ज्यादा चिंता मुझे उसके घरवालों की थी ।आखिर वह कब तक उसके लौटने की झूठी आस में जीते रहेंगे।आज मुझे ठेकेदारों के साथ काम करने वाले मजदूरों की जिंदगी का एक ऐसा पहलू देखने को मिला जिसकी तो कभी कल्पना ही नही की थी।
चार पांच दिन बाद मैं कानपुर चला आया पर मेरे मन से धान सिंह की बात निकल ही नहीं रही थीं।
अचानक एक दिन मुझे याद आया कि मेरा एक परिचित नेपाल बार्डर पर धनगढ़ी में कस्टम में काम करता है। उसके द्वारा धान सिंह के भाई को कम से कम ये खबर तो पहुँचाई ही जा सकती है।
मै सन्तोष मिश्रा के घर पहुँच गया और उसका मोबाइल नम्बर लेकर मैंने धनगढ़ी में उससे बात करके पूरा मामला समझाया।और यह भी बताया कि धनगढ़ी बाजार में कोई रावत की, किराने की दुकान है उसके भाई का नाम धान सिंह है,जो मजदूरी करने उत्तर काशी आया था।वह अब जीवित नहीं है।ये खबर किसी तरह रावत की दुकान पता करके उसके पास पहुँचानी है।बहुत जरूरी है चाहे कैसे भी हो ये खबर पहुचाओ।
सन्तोष ने कहा भईया हम पूरी कोशिश करेंगे इस काम को करने की।
दो दिन बाद सन्तोष का फोन आया "भईया, रावत की दुकान मिल गई थी खबर पहुँचा दी है।"

मैं आज भी कभी कभी सोंचता हूँ अगर मेरी मुलाकात धान सिंह से न होती तो उसके घर वालों को ये खबर शायद कभी न मिलती । और पता नहीं उसके घर वाले कब तक उसका इंतजार करते रहते।
अभी भी जब कभी ये घटना याद आ जाती है तो धान सिंह की वह प्यार भरी आवाज, "साब लौटते हुये मिल कर जाइयेगा, "मन को बहुत अंदर तक दुखी कर जाती है।

यायावर गोपाल खन्ना
कानपुर

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Sarla Mehta

Sarla Mehta 3 years ago

यादें ना जाए कभी

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

धन्यवाद..!

समीक्षा
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