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यथार्थ रूप भाग-४( एक पुकार उस मनस्वी को) - शिवम राव मणि (Sahitya Arpan)

कवितानज़्मलयबद्ध कविता

यथार्थ रूप भाग-४( एक पुकार उस मनस्वी को)

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एक पुकार उस मनस्वी को
जो दौड़ रहा है
और दौड़ते जा रहा है।

निराशा हो या डर
कमजोरी हो या ताकत
खुशी को पाने की जिद हो
या दुख से भागने की आदत;
यह वह निर्णय हैं
जो सच से झूठ की ओर ले जाते हैं।
लेकिन हां, कभी-कभी
सच से हमें निराशा होती है,
डर का एहसास होता है,
कमजोरी महसूस होती है,
और सच से ही हिम्मत मिलती है।

लेकिन कोई जब
आकांक्षाओं की अभिलाषा में
दुख से दूर भागने लगे,
असलियत को जानते हुए भी
खुद को बहलाने लगे,
तो उसके हरकत और बात करने का अंदाज;
गौर करने लायक तो है,
लेकिन शायद कोई गौर ना करें ;
और अगर कोई समझदार समझ पाए, तो
यकीनन वह इन हालातों का तजुर्बे दार होगा
लेकिन वह शख्स जो जानबूझकर
दूसरों के सामने
खुद को कमजोर दिखाते हुए
ऐसे फैसलों को चुनता है,
जहां दूसरों के सवालों के जवाब
और फिर खुद को छुपाने के लिए कोई पर्दा,
यह दोनों ही मुकम्मल नहीं रहते।

फिर धीरे-धीरे
उसकी संगत को दुत्कारा जाता है
अधेड़, अल्हड़, मनहूस
और ना जाने क्या-क्या,
खुद को कामयाब बताने वाले
उसको पागल तक कह जाते हैं।
लेकिन क्या यह सही है?
सब में से कुछ की तरह वह भी एक मनस्वी है
एक ऐसा मनस्वी जो सब जानता है
हाशिए से आसमान तक की उड़ान पहचानता है
हर सही गलत को समझ पाता है;
पर इस बार वह हार गया
कसर यही कि वह अनजान रहना चाहता है
अपने हालातों को स्वीकारना नहीं चाहता
कहता है मुझमें ओर ताकत नहीं,
वह ऐसे सच से दूर भागना चाहता है
जो हकीकत में पहले तो उसे मिटा देगा
लेकिन वापस उभरने के कई मौके देता है।

पर वह सच और झूठ की पकड़म पकड़ाई से
दूर भागते हुए उन रास्तों पर दौड़ जाता है,
जहां दूसरों की नजर में उसकी अहमियत
हर छलांग के साथ मिटती चली जाती है,
और दूर खड़े लोग
उसे इधर से उधर भागते हुए तो देखते हैं
मगर सिर्फ देखते ही रहते हैं,
लेकिन इंसानियत के नाते
एक पुकार,
चाहे मेरी हो या तुम्हारी, जरूर देना
उस मनस्वी को
जो दौड़ता जा रहा है
और दौड़ते दौड़ते काफी दूर
गुम होता जा रहा है।

शिवम राव मणि

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