कवितालयबद्ध कविता
क्या गजब ढा रहा आज यह
सन्नाटे में तैरता सा कोलाहल
चारों ओर धूम मचाता,
यह चोर हरदम शोर मचाता,
सबसे निंदनीय पेय यह अल्कोहल
यह नाकरा, यह आवारा
सचमुच एक धीमा हलाहल
अनायास ही बन बैठा
अपनी ही अकड़ मे ऐंठा
आकर घर-आँगन में पैठा
हम सबकी जीवन-नैया में
बिनबुलाये से मेहमान सा
बनकर यूँ कैसे आ धमका
और देखते ही देखते
जबरन सिर पर चढ़ बैठा
यह व्याधि-विषाणु को भगाता
दो बूँद हथेली पर मलकर,
यह अर्थतंत्र का बने सारथि
दो घूँट गले में ढल-ढलकर
कोई इसके पीछे-पीछे
बावरा सा भागता
और शहर की सभी
मेडिकल शाॅप झाँकता
इस गली से उस गली तक,
हर सड़क की धूल फाँकता
और कोई सूखा गला
जरा सा तर करने को
प्राणों में उन्माद का
जहर भरने को
लंबी-लंबी लाइनों की
कठिन कसौटी पर
खरा उतरने को,
कुछ भी कर गुजरने को
कमर कसता
मिल जाये तो पौबारे
छूटें मस्ती के फव्वारे
उडे़ं मजे के गुब्बारे
अगर नहीं तो तरसता
आँसू बनकर सारी रात
गम आँखों से बरसता
गायब मन का सब सुख चैन,
बहकते बैन, न कटती रैन,
तड़प सभी मन की बाहर ला,
बक-बक करके
गालियों का काव्यपाठ
बरखा बनकर बरसता
अजब समय का साया है
मनहूसियत का
काला सा सरमाया है
काला जादू बनकर तन-मन,
कण-कण, तृण-तृण पर छाया है
जाने क्या-क्या इसके
मन में है
जाने क्या-क्या कांड
सबसे कराया है
जाने कितनों का पाणिग्रहण
इसने टलवाया है
जाने कितने अहसासों को
बेरुखी में कैद कराया है
हल्दी की जगह हथेली पर
अलकोहल मलवाया है
जाने कितनी नजदीकियों को
दूर से ही "टाटा, बाय" कराया है
खलनायक बनकर ना जाने
कितनी प्रेमकथाओं को,
अनचाहे से मोड़ पर,
संपर्क-सूत्र तोड़कर,
अल्पविराम से दीर्घ विराम
और पूर्ण विराम दिलाया है
"अथ " को कितनी निर्ममता से
सीधा "इति" तक पहुँचाया है
इसका सबको संदेश है,
रुकावट के लिए खेद है,
यह अटल कोरोना ब्रेक है,
नहीं इरादा इसका कोई नेक है,
लगता है सब कुछ फेक है,
जिंदगी की रेलगाड़ी
आज बहुत ही लेट है
दुआ करो, देर से जाये,
मगर दुरुस्त होकर जाये
सबको मंजिल तक पहुँचाये
मिट्टी की सौंधी खूशबू से
सही-सलामत महकाये
दुआ करो, यह
गोरखपुर जाते- जाते
राउरकेला ना पहुँचाये
द्वारा : सुधीर अधीर