लेखअन्य
हमारी महान संस्कृति के एक अमूल्य आभूषण, " अतिथि देवो भव " का यह विलक्षण भाव जो देश, काल और मन की दशा-दिशा के साथ नये-नये अर्थ पाता रहता है. कहते हैं कि कोई किसी के घर इन चार भावों के कारण जाता है- भाव, अभाव, प्रभाव या स्वभाव. मगर ये चारों मिलकर आतिथेय के सिर पर विराजमान हो जायें तो फिर ये अहसास दबाव में ढलने लगते हैं. कभी-तो ये चारों कुछ इस तरह गड्डमड्ड हो जाते हैं कि इसके अथ और इति दोनों ही बुद्धि की परिधि से बाहर हो जाते हैं
कई दिन से इस अनाहूत देव को झेल रहा एक बेचारा विवश भक्त दर्द भुलाने के लिए भूले-बिसरे गीत सुनने लगा मगर यहाँ भी सिर मुडा़ते ही ओले पड़ने लगे. राजकपूर जी मुकेश के स्वर को साकार रूप देते हुए अलाप रहे थे, " मेहमाँ जो हमारा होता है, वो जान से प्यार होता है ". अब
" जाके पाँव ना पडी़ बवाई, वो क्या जाने पीर पराई ". मेहमान तो सुनकर, आनंदित होकर इसके प्रभाव को भाव में बदलने के लिए अपने स्वभाव में लौटकर अपने वापस लौटने को स्थगित करने में जुट गया और इधर मेजबान अपने भंडार में इसके प्रभाव से उपजे अभाव की आशंका से झुँझलाकर बरसने लगा, " और ज्यादा दिन रुक जाये तो जानलेवा होता है." सच पूछो तो, अतिथि का अर्थ है, " न तिथिर्यस्य सः ", अर्थात् " जिसकी आने और जाने की कोई तिथि ना हो ".
" अतिथि देवो भव " का अर्थ संदर्भ के साथ-साथ बदलने लगता है. यदि हम अतिथि हैं तो कुछ इस तरह, " अतिथि को देने वाले बनो " और यदि हम आतिथेय हैं तो , " अतिथि, देने वाले बनो ". सरल शब्दों में, " यदि मैं तुम्हारे घर आऊँ तो क्या खिलाओगे और आप मेरे घर आओगे तो क्या लेकर आओगे.
कुछ अतिथि बहुत ही पारदर्शी मन वाले होते हैं. उनके मन में विराजमान हर भाव बूँद-बूँद टपकने लगता है. मेरे दादा जी के मित्र के बारे में कहा जाता है कि उनकी पारदर्शिता इतनी विकट थी कि वह यदा-कदा प्रकट होकर संकट का रूप ले लेती थी. एक मेजबान महिला ने उनको पानी बडे़ गिलास और दूध छोटे गिलास में अर्पित किया तो वे वहीं पर उस अर्पण का तर्पण कर बैठे, " दूध के लिए घर का सबसे छोटा गिलास और पानी के लिए सबसे बडा़ गिलास ! मैं पहले ही दिन इतना भारी लगने लगा ! ".
ऐसे ही एक पारदर्शी मन वाले अतिथि पास के गाँव को अपनी चरणरज से धन्य करने गये. मेजबान ने जलपान, अल्पाहार के रूप में ही अपने आतिथ्य की इतिश्री करने के भाव से कहा, " आइये, चलने से पहले हमारे खेत देख लीजिये ". अब मेजबान सेर तो मेहमान सवा सेर निकला और मन ही मन, " तू डाल-डाल, मैं पात-पात " का जाप करते हुए बोला, "चलने की जरूरत नही. आपके खेत तो मैं भोजन की थाली में ही देख लूँगा और एक थाली में ना समायें अगली बार दूसरी, तीसरी, चौथी जितनी भी आप चाहें, देखने को तैयार हूँ. अब रोज-रोज तो आना होता नहीं. एक बार में ही आपके प्रेमरस से तृप्त हो जायें. " अब मेजबान सिर पीटकर कहने लगा कि अगली बार तो द्वार पर लगा ताला ही आपका आतिथ्य कर सकेगा.
कुछ आतिथ्यरसिक अतिथि तो इस अद्भुत रसपान के लिए इतने आतुर रहते हैं कि नहाने-धोने की औपचारिकता में ऊर्जा व्यर्थ नहीं करते. देव तो भाव के भूखे होते हैं और इस भावरस द्वारा आकंठ तृप्ति से धन्य होने के लिए " अपने घर यह कहकर चलते हैं कि रास्ते की धूल-धक्कड़ से नहाना बेकार हो जायेगा. वहीं जाकर मेजबान के घर अभिषेक करवा लेंगे " और वहाँ जाकर , " भाई साहब, हम तो बिना नहाये घर से निकलते ही नहीं. आपका घर तो आतिथ्य का मंदिर है और मंदिर में बिना स्नान किये कैसे जा सकते हैं ? ".
जरा कल्पना करें कि किसी शायर के घर के घर कोई भोजनप्रिय मेहमान आ धमके तो ? तो फिर कुछ यों होगा. एक शायर ने आते ही भोजनप्रिय मेहमान को चटपटा सा शेर परोस दिया . अब मेहमान की हालत खराब. कुछ प्रतीक्षा के बाद उसने " वाह वाह क्या बात है. शायद ये सबसे हसीं मुलाकात है. " . मेजबान लखनवी अन्दाज में चहक उठा,
" हुजूर, जर्रानवाजी है आपकी, ये खाकसार किस काबिल है. ".
मेजबान पेट पर हाथ फेरते हुए भीतर दौड़ रहे चूहों को सहलाते हुए बोला,
" जर्रानवाजी का मतलब ये नाचीज कुछ समझा नहीं,
ये बतायें कहाँ छुपी मेहमाननवाजी आपकी. "
अब यह एक अलिखित नियम है प्रकृति का कि ऐसे स्वयंभू अतिथि भोजनप्रिय ही होते हैं. जब एक मेजबान ने देखा कि कितना परोसने पर भी मेहमान की जठराग्नि शांत ही नहीं हो रही है. थोडा़ चिंतित होकर डिप्लोमेटिक स्टाइल में, बिना लाठी तोडे़ साँप को मारने के उद्देश्य से सलाह देने लगा, " बीच में पानी भी पीना चाहिए " और यह कहकर पूरा जलकलश खाली करने को तत्पर हो गया. मेहमान उतना ही निश्चिंत भाव चेहरे पर लाकर बोला, ' पहले बीच तक पहुँचने तो दो. तुम तो किनारे पर ही नैया डुबो रहे हो ? " अब तो मेजबान के सामने माँ अन्नपूर्णा की शरण में जाने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं बचा था.
हरियाणा के लोग कुछ अधिक स्पष्टवादी और हाजिरजवाब होते हैं. एक परिवार का जमाई साक्षात उल्टा तवा था. उसे कभी भी समुचित आतिथ्य नहीं मिलता था ओर टाँगखिंचाई फोकट में ही होती रहती थी. मगर इस बार तो लग रहा था कि सूरज पश्चिम से उदित हुआ था. जब भी वह वापस लौटने लगता तो सभी ससुरालीजन उसके हाथ से थैला छीनकर उसे रोक लेते थे. उसकी जिज्ञासा आकाश छूने लगी. अपनी पत्नी को एकांत में बुलाकर पूछने लगा, "इस बार क्या बात है? कुछ बदले-बदले से मेरे सरकार नजर आते हैं. ". बाहर से सासू की आवाज कानों में रस घोलने लगी, " आपके बहाने हमें भी घी-दूध मिल जाता है."
वह उन सबका मुँह देखता ही रह गया जब उसके साले ने समझाया " हमारी भैंस का कटडू़ मर ग्या. तुझे देखकर वो दूध दे दै. "
एक बुढिया बीमार रहती थी. तभी अचानक दिन ढलते ही दो मेहमान आ धमके. एक उसका दामाद और दूसरा बहू का भाई. बुढिया बोली, " भाई देखो, घर में रोशनी भी नहीं. मेरी तबियत भी ठीक नहीं. तुम दोनों के लिए खिचड़ी बना दूँगी " और उस खिचड़ी को दोनों के लिए एक ही थाली में थोडा़ दूर-दूर परोस दिया. इस आयु की माताओं में दामाद के लिए एक कोमल भाव और बहू के भाई के लिए अकारण वितृष्णा भाव रहता है. इसीलिए एक कटोरे में घी और एक बडा़ चम्मच लेकर पास बैठ गई. आँखों को सावन-भादों बनाकर दामाद से बतियाती हुई उसकी खिचड़ी घी से सींचने लगी. बहू का भाई परेशान और हैरान. उधर बुढिया बेटी का हाल पूछती हुई अपनी समधन द्वारा, बेटी को मिलने वाली कल्पित यातनाओं के अर्द्धसत्य का अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण कर रही थी और बीच-बीच में चमचे द्वारा घी के चौके-छक्के भी उछाल रही थी. इस पंगतभेद की मार सीधे बहू के भाई को आहत कर रही थी. एक और बाढ़ और दूसरी ओर सूखा. इसलिए रिटायर्ड हर्ट होने के पहले ही ऐसी गुगली फेंकी कि बुढिया क्लीनबोल्ड हो गयी. चेहरे पर स़वेदना की चाशनी चढा़कर बोला, " मौसी, तेरी बेटी को अगर कोई कष्ट देगा तो भगवान उसका यूँ मटियामेट कर देगा.... " और इस भाव को हाथों से संपन्न करते हुए सारी खिचड़ी को एकाकार करके सामाजिक न्याय स्थापित कर दिया.
कोरोनाकाल में मेहमान से अधिक मेजबान पारदर्शी हो गया है. आजकल निमंत्रण की शैली का कुछ इस तरह रूपान्तरण हो गया है,
" भेज रहे हैं यह निमंत्रण,
प्रियवर, तुम्हें बताने को
हे मानस के राजहंस,
तुम आ मत जाना खाने को "
कोई भी आयोजन मुख्य अतिथि के बिना संपन्न नहीं हो सकता. इस हास्य-आयोजन में भी उनके हस्ताक्षर अपरिहार्य हैं अब यह मुख्य अतिथि एक ऐसी श्रेणी है जिसमें अतिथि का कार्यक्रम में कुछ कीमती चार चाँद विज्ञापन या अंशदान के रूप में लगाना ही मुख्य है. समर्थ स्वतः ही मुख्य हो जाता है. इस आयोजन के कला या भावपक्ष से कोई लेना-देना नहीं होता. प्रभाव ही अतिथि में मुख्य भाव खोज लेता है.
एक संस्कृत कन्या-पाठशाला के उद्घाटन समारोह में एक काॅन्वेंट-संस्कृति में रचे-बसे एक महामहिम मुख्य जी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया. शर्त यह थी कि भाषण संस्कृत मे होना चाहिए. अब मुख्य जी ने पूछा,
" क्या श्रोता भी संस्कृत समझते हैं ? ."
" नहीं, नहीं, कोई नहीं समझता "
" फिर तो कोई बात नहीं. मैं सब मैनेज कर लूँगा "
और इस प्रकार सब कुछ यथाविधि संपन्न हो गया. करतल ध्वनि से पांडाल गुंजायमान हो गया. मगर बेडा़ गर्क हो इस मीडिया का. हर जगह, " मान ना मान, मैं तेरा मेहमान " वाली मुद्रा में आ ही जाते हैं. पूछ ही बैठे,
" त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ",
इस पर आपका क्या अभिप्राय है. मुख्य महामहिम अपनी छठी इंद्रिय को जगाकर बोल उठे,
" त्रियाचरित्र देखकर पुरुष भाग गया. कहाँ गया, यह तो देव भी नहीं जानते. मनुष्य तो उनके सामने कुत्ता है.
एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से पांडाल भूकंपित सा हो गया.
यदि इस चुहलबाजी से परे हटकर सोचें तो मधुर सत्य यही है कि अतिथि-सत्कार केवल भारत की परंपरा है. पश्चिम वाले तो सिर्फ अमेरिकन स्टाइल में खाने का बिल भी अपना-अपना चुकाते हैं. धन्य है यह देश जहाँ एक कबूतर भी स्वयं को मारने आये वधिक का आतिथ्य स्वयं के प्राणों की आहुति देकर करता हैं. यह विश्वास स्वयं में सकारात्मक भावना समेटे हुए है कि अतिथि स्वयं के भाग्य का भाग स्वयं लेकर आता है और अपने पीछे हजारों खुशियाँ बिखेरता जाता है.
द्वारा : सुधीर अधीर
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