कविताअतुकांत कविता
वह जो मेरे हो न सके
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कुछ सवाल भी उनके थे
कुछ जबाब भी उनके थे
कुछ वास्तविकता से जुड़े
कुछ ख्वाब भी उनके थे
उन पन्नों को मैं पलटता गया
हर पन्नों पर उनके हस्ताक्षर थे
मैंने तो उन शब्दों को पढ़ा
जिनमें लिखे गए उनके अक्षर थे
जितना ही पढ़ता गया
नजरें धुंधली सी होती गयी |
नजरे भी उनकी थी
नजारे भी उनके थे |
समुंदर की गहरायी ही नहीं
किनारे भी उनके थे |
तूफान भी उनका था
लहरे् भी उनकी थी
कश्ती भी उनकी थी
सवारी भी उनकी थी |
हम अबतक जहाँ रहे
वह बस्ती भी उनकी थी
वहाँ लोग भी उनके थे
पंचायत भी उनकी थी
उन्होंने ही बनाये थे नियम
शिकायत भी उनकी थी |
हम तो बस देखते रहे
अपनी सुध बुध खोकर
हो न सके वे मैरे
मैं बस रह गया
उनका होकर |
कृष्ण तवक्या सिंह
30.09.2020.