कविताअन्य
***** गरीब का हक़ *********
दर -दर की ख़ाक भले मैं बिनूगा l
पर हक़ नहीं गरीबों का छीनूँगा l
एक रोटी भले कम खाऊँगा l
पर आह ग़रीबों की घर ना लाऊँगा l
जिसका जो हक़ उसको मिल जाये l
काश इतना यही मुमकिन हो जाये l
लेकिन रसूख़दार जो बड़ा है l
थामे बैशाखी जुआड़ की, पहले ही तन कर खड़ा है l
सहमा सिमटा गरीब पंक्ति में सबसे पीछे पड़ा है l
गरीब का हक़ दिलाने की राह में बाधा बहुत बड़ी है l
नाकाबिल हक़ पाने के जो उनको ही जल्दी पड़ी है l
यहाँ जरुरी है कि उल्टी दौड़ कराया जाये l
वाजिब जो हक़ पाने के उनका हक़ उनको दिलवाया जाये l
(आलोक मिश्र )