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कवितानज़्म
बेपनाह बेइंतिहा तीरगी को सुब्ह ओ सहर कोई कैसे कहे ग़रीब पर बेसबब बेशुमार ग़ुरबत का कहर कोई कैसे सहे इन्सान को इन्सान का उठाना पड़ता है बोझ यहाँ "बशर" बे'असर बे -ख़बर मु'आशरे को कोसे बग़ैर कोई कैसे रहे © 'बशर' بشر.