कवितालयबद्ध कविता
चाहूं हे रघुनंदन सबरी की गति,
मैं अनख स्वभाव मन मूढ़ मति,
लालच जग की माया से दूर करो,
कुंद बुद्धि जो मैं हूं हे सीता के पति।।
हे अवधेश मेरे मन ग्रहीत क्लेश,
लोभ के बस करूं कपटी का वेष,
आप जगत-प्रति पालक, कष्ट हरो,
चरण अनुराग जगाओ हे सीता के पति।।
मन इच्छित गिद्ध गति को पाऊँ,
दास चरण-कमल का हो जाऊँ,
अपना कह दो नाथ, कृपा तो करो,
भजन का भाव जगा दो हे सीता के पति।।
विनती सुन लो, हे करुणानिधि अवधेश,
मन से हरण करो जगत के सारे द्वेष,
नाथ रमा पति हे राम, सिर पर हाथ धरो,
दास बना लो श्री चरणन की हे सीता के पति।।
इच्छित मन गति गज का पा जाऊँ,
मन कमल पुष्प आपको नाथ चढ़ाऊँ,
मैं तेरा हूं नाथ अब तो स्वीकार करो,
माया का फंद छुड़ाओ हे सीता के पति।।
चाहूं हे रघुनंदन, सबरी सा बन जाऊँ,
मिले आपकी सेवा, रुची-रुची भोग लगाऊँ,
हो आप प्रेम के भूखे, कृपा कटाक्ष करो,
भजन रति वर दो हे सीता के पति।।