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कवितानज़्म
भीड़ है हुजूम है मेला है आदमी फिरभी अकेला है! कहनेको हमारी है ज़िन्दगी पर किसी औरका खेला है! नसीब संवारने की दौड़ में वक़्तने आदमी को पेला है! राब्तोंके वहमने इन्सान को बहते रेले में पीछे धकेला है! वह कल भी अकेला था आदमी आज भी अकेला है! @"बशर"