कविताअतुकांत कविता
दादाजी
चांदी से भी सफेद बाल
असमतल मिट्टी से गाल
मुस्कान बता रही है,
थकी हुई गाथा सुन रही है
फीके पड़े दुनिया भर के इत्र
दादाजी जो हैं मेरे मित्र
स्नातक पास होते है
नर्सरी में मेरे साथ बैठा हे
बातों में तर्क नहीं है
यह बात मुझे मालूम नहीं है
अब तर्क समझ आ रहा है
लेकिन दादाजी नहीं है
कॉलेज में बैठा रोने लगता हूं
आंसू पूछने दादाजी को खोजने लगता हूं।
त्तर्कहीन बातें ही सुना दो
कोई दादरी से ही मिला दो
बिंदेश कुमार झा