कविताअतुकांत कविता
चालीस की देहरी पर
मेरे कान के पीछे लटों में
अब घिरने लगी है चाँदनी,
मगर केश के सिरों पर यौवन
अलहड़ बालक सा झूल रहा है अब भी।
चेहरे पर मेरे उभरने लगी हैं
जीवन के अनुभवों की रेखायें,
लेकिन दमकती हूँ अब और ज्यादा
पूर्णमासी के आत्मविश्वासी चाँद सी।
माना अब चालीस की देहरी पर
कदम रख चुकी हूँ मैं,
मगर बचपन छूटा नहीं
अब भी नटखट, अल्हड़ हूँ मै।
ये जो तुम बात-बात पर
मुझे मेरी उम्र याद दिलाते हो,
वो महज़ बढ़ता हुआ एक नंबर है,
जाने क्यों भूल जाते हो।
सच कहो न कि,
मेरे चिरयौवना मन की आयु से
तुम अकसर जल-भुन जाते हो!!
बारिश की बूँदों से अकसर
करती हूँ मैं अठखेलियाँ,
जो खुश होऊँ तो
ताली बजाकर..
पगली उन्मुक्त सी हँस देती हूँ।
मन की न हो तो बरसा देती हूँ
बिन बादल कई बरसातें..।
बिन ताल मैं गा देती हूँ
कुछ आशाओं भरे तराने,
कुछ बचपन के किस्से
कुछ अधूरे प्रेम के अफसाने।
बिन घुँघरू थिरकने लगती हूँ
सजाती हूँ महफिलें यारों की।
कुछ अपनी कहती हूँ
कुछ उनकी सुनती हूँ।
और कभी निकल पड़ती हूँ....
विरान रास्तों के लंबे सफ़र पर,
चुराने कुछ फुर्सत के पल
खुद के लिये!!
हाँ हो गयी हूँ चालीस की
पर मैने मन के भीतर का बचपन
सहेजा हुआ है आज भी...
न थमूँगी.. न रुकूँगी...
मुझे खूब जीना है बचपन अभी ।।
निधि घर्ती भंडारी
हरिद्वार उत्तराखंड