कवितालयबद्ध कविता
अब भी सीना तान,
बाजू फैला,
वो खङे है,
जीवन की हर दुख-दर्द,
को सहते है,
जिन्दगी में बहुत कुछ सीखा,
बहुत कुछ देखा,
पर कठिनाइयों से भागते
मन को सीखा देते है,
पथ हो ,कितने विशाल,
मगर चोटी तक पहुंचा देते है,
पहाङी हूँ,पहाङ चढे-उतरे है,
हमारे पूर्वज,
कभी रहे इन पहाङो पर,
पहाङ हमारे पूज्य मगर,
अब धीरे-धीरे घट रहे है,
इच्छाओं की पूर्ति,
संसाधनों के अभाव में,
टूटे वादे कसमों में
अब धीरे-धीरे घट रहे है,
पहाङी हूँ,पहाङ चढे-उतरे है,
अब तो बस,
रह गये कुछ,
खाली हो चुके गाँव,
कुछ गाँव खाली होने को है,
जो रह गये जन वहाँ,
पर पहाङ की तरह,
एक जगह स्थिर रह गये है,
शायद सच भी प्रतीत,
होता हो झूठ,
पहाङ में आके,देखा है,
पहाङी हूँ,पहाङ चढे-उतरे है,
बुराश खिला,
काफल,
हिसालू सब फल-फूल हो चुके है,
बरसात आयी,
नदी- झरने सब बह रहे है,
सङके बनी कीचङ का मैदान अब,
बच्चे रस्सियों के सहारे,
पाठशाला जा रहे है,
खड्हर बने वो मकान अब,
जो विकास की राह देखकर,
खुद राह देख लियें है,
पहाङी हूँ,पहाङ चढे-उतरे है,