कहानीव्यंग्य
माँ बेटे का ससुराल एक लघु कथा
बाबा की भरी हुई आँखे और झुके हुए कन्धे ये चीख़ चीख़ कर बयां कर रहे थे उनके ऊपर लदा कर्ज़ों का बोझ जो मेरी शादी की सारी ज़रूरते पूरी करने के बाद भी कम पड़ रहा था। मुझे याद है कि फेरो की रात बाबा मेरे ससुराल वालों के सामने बस सर झुकाये खड़े थे। उनकी झुकी नज़रे सिर्फ एक ही सपना देख रही थी कि उनकी लाडो ससुराल में खुश रहे।
मैं जानती हूँ कि मेरे पति की तरफ से कोई मांग नही थी वो तो मुझसे बहुत प्यार करते हैं और मेरे घर की सारी परिस्तिथि जानते है बस उनकी माता जी की सोच थोड़ी अलग है।
उनका कहना था कि उनके वहाँ लड़की की तरफ से गिफ्ट्स देना बेहद ज़रूरी रस्म हैं और इससे समाज मे कोई भी बाते नही बनाता है, अगर कैश ज्वेलरी फ्रिज वाशिंग मशीन और गाड़ी नहीं दी गई तोह लोग सोचते है कि लड़के मे कोई कमी हैं, बस इसीलिए ये सारी चीजें देनी पड़ी है।
मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि मेरे पति को किसी भी चीज़ की आवश्यक्ता नही है, वो तो दहेज के नाम से भी नफरत करते है।
पग फेरो की रस्म के बाद आज मैं पहली बार अपने ससुराल जा रही हूँ।
दहलीज़ पर पहुचते ही घर के आंगन से सासु माँ और उनके बेटे की आवाज़ आ रही हैं, वो दोनों हमारे बारे में ही बाते कर रहे है।
सासु माँ "बेटा इन कमबख्तों ने 55 इंच का टेलीविशन भेज दिया, बात 65 इन्च वाले की हुई थी, तेरे ससुराल वाले भिखारियो से कम नही है" बेटा हँसते हुए बोला "माँ एक साल बाद पहली मैरिज एनीवर्सरी पर 75 इंच वाला मांग लेंगे चिंता किस बात की हैं अब तो वो हमारे पैरों की जूती भी साफ करेंगे"
इतना सुनते ही मैंने 100 नंबर डायल किया और माँ बेटे दोनो को उनके ससुराल पहुँचा दिया।
आपने मैं शब्द का प्रयोग किया है जैसे खुद को कहानी में इंगित किया है। ऐसी अवस्था मे यह संस्मरण हो जाता है।