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हम भी कभी इंसान थे - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

हम भी कभी इंसान थे

  • 164
  • 11 Min Read

मैं चल रहा था,
मैं चल रहा था,
खुद को ही जैसे
छल रहा था,
डूबती सी, ऊँघती सी
हर फिजा़ में ढल रहा था,

हालातों की आँच से यूँ
तिल-तिल जल रहा था,
जाने क्यूँ मेरा वजू़द
बूँद-बूद सा
पिघल रहा था

अपनी ही धुन में खोया सा,
खुद के ही कंधों पे ढोया सा,
खुद पे ही, खुद ही रोया सा,
जगता हुआ भी सोया सा

था खुद से ही कुछ बेखबर
था अजब-गजब अपना सफर,
पग-पग पर खुद को
बदलती सी,
लगती थी अपनी डगर,

जर्रा-जर्रा अनजाना सा
सब कुछ था बेगाना सा,

हाँ, सच तो बस
जलती हुई
हर शमा ही थी,
हर जीवन तो था बन रहा
दीवाना सा, परवाना सा

थे रास्ते सुनसान से,
चारों तरफ श्मशान थे,
अंजाम से अनजान से,
रूठे हुए, टूटे हुए
सब खुद की ही पहचान से,

हालात कुछ अजीब थे,
जिंदगी से दूर,
बहुत ही दूर होकर,
मौत के कुछ
ज्यादा ही करीब से

हो गये थे सब यहाँ
आखिरी कदम रखते ही
सचमुच बिल्कुल गरीब से

साँसों का सारा सरमाया,
और जिंदगी का हर साया
चुक गया था,
दो डरावने से पंजो में
फँसकर पूरा लुट गया था

कल तक था जो
भागता सा,
दौड़ता सा कारवाँ
जाने क्यूँ, यूँ ही
अचानक रुक गया था

कल तक मुझको
करता मगरूर,
सारे का सारा गुरूर,
हो वक्त के हाथों मजबूर,
उसके कदमों पे झुक गया था

जिंदगी के सात रंग
यूँ गड्डमड्ड से होकर
बन गये सफेद थे

जिस कड़वे सच से
जिंदगी थी
बनी हुई अनजान सी,
हर लाख बदला ज्यों ही
सिर्फ खाक में तो
फिर खुल गये सब भेद वे


हाँ, हर एक जिस्म पे
बस एक ही,
जी हाँ, सिर्फ सफेद ही
रंग का लिबास था,
इस लिबास में आज खोकर रह गया
इस सैलाब में तिनका सा होकर बह गया
जीवन का सभी विलास था


इस लिबास में एक भी
जेब नहीं थी,
किसी कब्र में
एक भी तिजौरी,
एक भी लाॅकर,
और एक भी 'सेफ' नहीं थी

हर हाथ अपने साथ कभी
एक बंद खाली मुठ्ठी ही
बस लेकर आया था,
आज वो हर एक मुठ्ठी
एक बार फिर
सारी की सारी खाली थी
और पूरी खुली हुई थी,
कुछ भी नहीं अब पास था,
एक खालीपन,
एक सन्नाटा ही
सबके आसपास था,

हर शहंशाह को मिल गया था
सब कुछ यहीं पर छोड़कर
सचमुच एक वनवास सा

जिंदगी का आखिरी
मकाम देख-देखकर,
खाली पडा़ किराये का
मकान देख-देखकर

देखकर यूँ
छूटते से, रूठते से
इस तूफाँ में यूँ
टूटते से, फूटते से
शानो-शौकत के सामान
सब के सब यूँ
एक-एक कर

अपना दिल भर सा आया,
सिर भी थोडा़ सा चकराया,
मन भी थोडा़ सा घबराया
कदम जरा सा डगमगाया,
संतुलन यूँ गड़बडा़या
मैं अचानक लड़खडा़या,
प्राणों का पंछी फड़फडा़या,
तभी अचानक एक हड्डी से
अपना पाँव टकराया,

हम हो गये हैरान से
सुनकर उसका बयान ये,

" ऐ मुसाफिर,
जरा देख के चल,
हम भी तो कभी इंसान थे "

द्वारा : सुधीर अधीर

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