कविताअतुकांत कविता
मित्रता मेरी दृष्टि में
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नहीं जानता कब कोई
अपना सा लगता है
नहीं जानता कब किसी के बोल
हृदय को प्लावित कर जाते हैं
अगर उसे ही मित्र कहते हैं
तो लगता है मुझे मित्र मिल गया
जिसकी उपस्थिति मात्र से
हृदय में प्यास जाग जाए
जिसकी बातों से आँखों में
पानी भर आए |
अगर उसे मित्र कहते हैं
तो मुझे भी एक मित्र मिल गया
जिसे सुना सकूँ हृदय की धड़कन
और जो हृदय खोल कर दिखा सके
अगर उसे मित्र कहते हैं
तो मुझे मित्र मिल गया
जिसकी कही बातें बस मेरे दिल में ही दफन हो जाए
जो बन सके मेरा राजदार
अगर उसे मित्र कहते हैं
तो मुझे मित्र मिल गया |
जो माँग सके मेरा साथ बेहिचक
और जिससे माँग सकूँ मैं उसका हाथ
नि: संकोच ,बेहिचक
जो समझ सके मेरी मजबूरियाँ
जिससे कह सकूँ वह बात
जिसे दुनियाँ के सामने कहने में
अपमानित होने का भय होता हो
गा सकूँ जिसके सामने वह गीत
जिसमें शायद गायब लय होता हो
जो मेरी पराजय को अपनी पराजय समझे
मेरे विजय को अपनी जीत
उसे ही तो शायद कहते हैं मनमीत
कृष्ण तवक्या सिंह
19.09.2020.