कवितालयबद्ध कविता
वक्त था,प्रेम का,
बस प्रेम न था,
इस मन मे,
कोई बस ना पाया था,
कोशिश है,प्रेम की,
बस प्रेम न था,
किसी रोज तुम आये,
तुम देखा किये,
फिर रोज आकर देखा किये,
ये हमारा भ्रम है कि,
बस प्रेम न था,
हमे लगा मानो,
जिन्दगी संवरती सी गयी,
तुम्हारे देखने से,
तुम्हारे देखने से,
हम भी आना -जाना किये रोज,
उन रास्तों पर,
जिस पर तुम चलती थी,नजरें झुकाकर,
हमें तुम्हारा इन्तजार होता था,
बस प्रेम न था,
धीरे-धीरे मन में विचारों का आना शुरू हुआ,
तुम्हारी प्रेम मे ये मन, लगना शुरू हुआ,
कुछ दिनों बाद ,
जब ना आयी तुम उन रास्तों पर,
ये मन तुम्हारे लिये, तङप उठा,
रोज देखा किये,
ना मिली बस तुम, उन रास्तों पे,
आज देखे तुझको, उन बीच बाजारों में,
खङे तुम किसी इन्तजार में,
ना ये मन तुमको कुछ कह पाया,
और समझ गया,इशारों इशारों में
कि बस तुम्हें प्रेम ना था,
ये तो बस नजरों का खेल किये थे,
तुम्हारी मन के विचारों में ना थे,
ये तो बस एक स्वप्न देखे थे,
बस प्रेम न था,
बस प्रेम न था,