कवितागीत
पिय मिलन की आस में,सुध बुध सब बिसराइ है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है
आंगन से दहलीज तलक
भ्रमण कई कई बार किया
कंगन,बिंदी,चूड़ी, काजल
उसने सोलह श्रृंगार किया
आईने में देख छवि खुद की,खुद से ही शरमाई है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है
कागा से बात करन लगी
वो कोयल के अंदाज मे
वो मोरनी सी नाच रही
है पुरवाई की साज पे
पल्लू ओड़ रही सर पे, कभी आँचल लहराई है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है
देह सुखे बृक्ष की भाँति
धरा सी प्यासी प्यासी है
खबर मिली जब से आने की
वो कई रातों की जागी है
मिलन की बेला में भी सही वो सौ सौ बार जुदाई है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है
पलकें भी झपक नहीं रही
धड़कन की गति भी तेज हुई
रहे खड़ी तो पांव जले से हैं
बिस्तर काँटों की सेज हुई
मुंडेर से देख रही रस्ता, रस्ते पे आँख बिछाई है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है
इंदर भोले नाथ
बागी बलिया, उत्तर प्रदेश