कवितालयबद्ध कविता
कुछ सुस्त कदम से सरकती,
कुछ तेज कदम आगे बढ़ती,
कुछ बेबसी से सिसकती,
कुछ अट्टहास बन उमड़ती,
कुछ तड़कती, कुछ फड़कती,
जीवन-हृदय का स्पंदन बन धड़कती,
पल-पल बढ़ती-चढ़ती राहें
कुछ गर्जन-तर्जन सी करती,
कुछ भरती खुद में सिमटकर,
यूँ ही बस ठंडी आहें
हाँ, यही तो जीवन है,
इसकी इसी सतरंगी सी,
इंद्रधनुषी सी छटा में
सिमटा एक मृतसंजीवन है,
चैतन्य का उद्दीपन है,
इसकी फैली-फैली बाँहें,
जर्रे-जर्रे में सिमटे अनगिन सरमाये,
इसके एक-एक कण में दुबके,
देखो तो, बैठे हैं छुप के,
कभी-कभी, यूँ दबे पाँव,
यूँ चोरी-चोरी, चुपके-चुपके,
हर एक बुझी सी चेतना से,
हर अदम्य सी वेदना के
कानों में आकर कह जाये,
मेरा हर एक उतार
और हर एक चढा़व,
हर मोड़, हर एक दौर,
हर दोराहा, हर चौराहा,
हर मुकाम और हर पडाव
स्वयं में एक आदि है,
स्फूर्ति की एक आँधी है,
चैतन्य का उद्घोष है,
आगे बढ़ने का जोश है,
कौन कहता है,
यह एक अंत है
क्षण-क्षण में सिमटा महाकाल,
कल, आज और कल बनकर,
स्वयं त्रिनेत्र, साक्षात् त्रिकाल,
यह अनादि, अनंत है
हर क्षण-क्षण में,
हर कण-कण में
संभावनायें अनंत हैं
हर एक किंतु-परंतु,
जड़ता का है एक बिंदु,
राह बनकर उमड़ रहा है,
इस गागर में घुमड़ रहा है,
एक अथाह, अनंत सिंधु
जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि,
पल-पल करता अवसर की वृष्टि,
जहाँ चाह, वहीं पर राह,
क्षण-क्षण में अवसर अथाह
क्षण-क्षण विलक्षण कालचक्र का,
इति नहीं यह कथा का,
यह तो केवल आदि है,
यह श्रीगणेश है,
अद्भुत, विशेष है,
यह तो बस "अथ". है,
जीवन के इस कुरुक्षेत्र का,
बस कर्म ही धर्मरथ है,
यदि कर्मवीर अर्जुन रथी है
तो हर एक धनुर्धर का,
पुरुषार्थी, हर एक नर का
स्वयं नारायण सारथि है
हो सके तो जान लो,
और जीवन को पहचान लो,
हर रजनी के गर्भ में
सिमटा एक नवप्रभात है,
हर लमहा एक शुरुआत है,
वक्त की सौगात है,
हर सिरा पहला सिरा है,
हर पत्थर आधारशिला है
हर शूल पर एक फूल है,
हर धूल में एक मूल है,
हर शून्य का एक मूल्य है,
बस प्रयास ही सफलता का
एक छोटा सा मूल्य है
हर पतझड़ की ओट में
सिमटा एक वसंत है,
अवसर जीवन-पर्यंत है,
यह कालचक्र अनंत है
हर एक साँस में सिमटी
अद्भुत आस है,
नैराश्य-तिमिर को चीरता
जीवन-प्रकाश है
बस कदम उठाना शेष है,
जीवन में संभावनायें
एक नहीं, अनेक हैं,
शाश्वत हैं, अच्युत हैं, अशेष हैं
द्वारा : सुधीर अधीर