कहानीअन्य
नमन मंच
साहित्य अर्पण हिन्दी साहित्यिक : एक पहल
दिनांक :15-09-20
#हिंदी दिवस
विधा : तुच्छ सोच (लघु कथा )
आज कोकिला देवी का स्वर्गवास हुए 15 दिन पूरे हो चुके थे। इन 15 दिनों में रमाकांत जी के घर शोक व्यक्त के लिए आने जाने वाले लोगों का तांता लगा रहता था, जिसने रमाकांत जी के दुःख को थोड़ा बाँट दिया था,,,पर आज तो सुबह से न जाने क्यों उन्हें अपनी पत्नी कोकिला की याद लगातार सता रही थी। कोकिला उनकी पत्नी ही नहीं बल्कि उनकी गहन सखा भी थी,,जो जिंदगी के हर सुख-दुःख में उनके साथ खड़ी रहती थी। हालांकि रमाकांत की तरफ से कोकिला देवी को कुछ भी करने की पूरी छूट थी, लेकिन फिर भी अपने पति की इच्छा के बिना उन्होंने कभी कोई भी काम नहीं किया था,,,,,आज वही सखा , वही कोकिला उनसे बिना पूछे भगवान के पास चली गई थी।
कितना खुशहाल परिवार था रमाकांत का,,,,, दो बेटे, पत्नी और वो स्वयं। दस साल पहले बड़ा बेटा सुशांत नौकरी के लिए लंदन क्या गया,,,,सब कुछ बिखरता चला गया। उसने वही जाकर एक लड़की से शादी कर ली। रमाकांत और कोकिला देवी को न चाहते हुए भी बेटे की खुशियों के आगे हथियार डालने पड़े। फिर एक साल बाद पोता होने की खुशखबरी मिली,,,,और उसके तीन साल के बाद एक कार एक्सीडेंट में सुशांत की मृत्यु की खबर,,,,, टूट कर बिखर गए रमाकांत और कोकिला। उसके बाद उन्होंने एंजल से सब रिश्ते लगभग खत्म कर दिए थे । एंजल हर सप्ताह रमाकान्त और कोकिला को फोन करती लेकिन उन्होंने कभी भी उसे दिल से नहीं अपनाया। कहते है न कि वक्त हर ज़ख्म भर देता है,,,दूसरे बेटे कुणाल की खुशियों को देख ही जीने लगे दोनों। उन्होंने सोच लिया था कि वे कभी भी कुणाल को विदेश नहीं जाने देंगे। कुणाल की पत्नी सोना बहुत ही सुशील और समझदार थी, सास ससुर का आदर करना , उन्हें मान सम्मान देना अच्छे से जानती थी। उसके आते ही घर में खुशियाँ वापस आ गई थी,,, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था,,,,,कोकिला देवी बीमार हुई और चल बसी।
बड़ी बहू एंजल को जब खबर मिली,,,तो वह तुरन्त भारत आई,,,पहली बार रमाकांत जी ने अपने पोते को देखा था। बिलकुल सुशांत की छवि। पोते और बहू ने आते ही सबसे पहले रमाकांत के चरण-स्पर्श किए। लेकिन रमाकांत जी के भारतीय संस्कारों ने उनका आशीर्वाद का हाथ बढ़ने से रोक दिया।
एक दिन सुबह जब रमाकान्त जी अपने कमरे से बाहर आए तो,,,,"सोना ,तुमने सारा सामान
पैक कर लिया न। मैं नहीं चाहता कि हमारा कोई जरूरी सामान यहाँ छूट जाए और हमें वापस यहाँ आना पड़े।"
"पर कुणाल पिताजी....!"
"मैं अपने आस्ट्रेलिया जाने के इस अवसर को उनकी वजह से खोना नहीं चाहता। वो मेरी तरक्की में एक बाधा हैं,,, इसलिए वह यहीं रहेंगे।"
आगे सुन न सके रमाकांत। वह लड़खड़ाते हुए दो कदम आगे ही बढ़े थे कि उन्हें अपने पोते की आवाज़ सुनाई दी,,,
"मम, वाय हैव यू बाट थ्री टिकेट्स? वी आर ओनली टू।"
"बेटा ये तीसरी टिकट दादाजी के लिए हैं। इस बार मैं चाहती हूँ कि वह भी हमारे साथ चले क्योकि जिस घर पर बड़ो का साया होता हैं,,, वह घर
हमेशा स्वर्ग जैसा बना रहता है। हमारे बड़े हमारे लिए गॉड का स्थान रखते हैं।"
आज रमाकान्त जी को अपनी संस्कार संबंधी सोच कितनी तुच्छ नज़र आ रही थी।
धन्यवाद
स्वरचित और मौलिक
डॉ. प्रीति रुस्तगी
बैंगलोर