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पुस्तक विमर्श - साये में धूप - Wasif Quazi (Sahitya Arpan)

लेखसमीक्षा

पुस्तक विमर्श - साये में धूप

  • 32
  • 11 Min Read

पुस्तक - " साये में धूप "

रचनाकार - दुष्यंत कुमार जी

प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली


" साये में धूप ", हिंदी ग़ज़ल परंपरा के शीर्षस्थ ध्वजवाहक ( अलंबरदार ) दुष्यंत कुमार की क्रान्तिकारी ग़ज़लों का मजमुआ ( संग्रह ) है जिसकी हर ग़ज़ल में रचनाकार के अंतर्मन की पीड़ा, हताशा एवं राजनीति के प्रति रोष की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है... पाठक ही नहीं स्वयं एक शाइर होने के नाते मैं यह कह सकता हूँ कि जब अवसाद और तकलीफ़ अपने चरम पर पहुँच जाते हैं तो विद्रोह के स्वर, शब्दों का रूप ले लेते हैं.... दुष्यंत कुमार जी ने जो ग़ज़लें कही हैं उसमें उन्होंने सर्वहारा वर्ग के हित के लिए आवाज़ उठाई है... साये में धूप संग्रह की हर ग़ज़ल अत्यंत प्रभावशाली है जो तत्कालीन लोकतान्त्रिक कुव्यवस्था पर कुठाराघात है....
उनकी ग़ज़ल का मतला " कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए , कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए " -अपने आप में सरकार के झूठे और आधारहीन वादों की पोल खोल देता है.. दुष्यंत का अंदाज़ ए बयाँ अल्हदा है उन्होंने अपनी बेबाक सोच को उम्दा अल्फ़ाज़ का पैरहन दिया है... संग्रह में उनकी एक और ग़ज़ल का शे'र -" एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है ,जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं " -भी गहरा मफ़हूम छोड़ता है शाइर के अनुसार यहाँ मृत्यु उपरांत भी धर्मगत राजनीति, खोखले रीति रिवाज़ चैन लेने नहीं देते... हर तरफ़ उहापोह का वातावरण है जिसमें कहीं कोई आशा की किरण निकले और सामाजिक व्यवस्था को नयी दिशा प्रदान करे...
दुष्यंत कुमार ने हिंदी में न केवल ख़ूबसूरत ग़ज़लें कहने का हुनर दिखाया है बल्कि उन्होंने यह भी बताया कि एक ऐसा शख्स जो सच कहने की हिम्मत रखता है वो हज़ारों ख़ामोश लोगों से ज़्यादा मुस्तनद ( बेहतर / बढ़कर ) है......संग्रह से उनकी ग़ज़ल का एक और मतला -
"इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है " भी प्रगतिवादी साहसिक विचारधारा को दर्शाता है.... मन की तड़प और बेचैनी को रचनाकार ने लफ्ज़यत में बखूबी ढाला है... मेरे ख़्याल से ' साये में धूप ' सम्भावनाओं के द्वार पर दस्तक देने वाला शानदार ग़ज़ल संग्रह है जिसके अब तक 60 से ज़्यादा संस्करण प्रकाशित ( शाया ) हो चुके हैं और मंज़र ए आम ( विमोचन ) पर आने के तवील अरसे ( लम्बे समय ) भी यह दीवान आज तलक प्रासंगिक है.... निःसंदेह दुष्यंत कुमार की यह अमर कृति है जो उनके इंक़लाबी तेवर को और वसुधैव कुटुंबकम के व्यापक नज़रिये ( नज़बुल ऐन ) को ज़माने से रूबरू कराती है.....


© डॉ. वासिफ़ काज़ी , इंदौर [ शायर एवं शिक्षाविद ]
©काज़ी की क़लम

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