मेरा नाम एमके कागदाना है मैं एक लेखिका हूँ
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Section | Genre | Rank |
---|---|---|
कहानी | हास्य व्यंग्य | 4th |
London is the capital city of England.
कविताअतुकांत कविता
भारत के लाल
उस महान विभूति को
कैसे हम भूल गए
गांधी जी को याद किया
उनको तो भूल गए
पैदा हुए थे उसी दिन,
जिस दिन बापू का था हुआ जन्म
भारत-पाक युद्ध में जिसने
तोड़ दिये दुनिया के भ्रम।
लालों में वो लाल
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कविताअतुकांत कविता
काश! तुम भी समझते
काश !तुम मेरी आंखों का
नमक महसूस कर पाते
जैसे सब्जी में जरा सा
नमक ज्यादा होने पर
फटाक से चिल्ला पड़ते हो।
काश! तुम मेरी फटी बिवाईयों के
दर्द को महसूस कर पाते
जैसे बिवाईयों की फटी
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उफ़्फ़फ़ सर के बारे में सुनकर बहुत दुख हुआ। बचपन मे रोक टोक जेल ही लगती है बड़े होकर अहमियत पता लगती है लेकिन तब तक वो लोग हमारी आंखों से ओझल हो चुके होते है।
कविताअतुकांत कविता
"करवाचौथ पर पति की व्यथा"
सुबह-सुबह जब आंख खुली।
मैंने पत्नी को पैर दबाते पाया।।
मैंने पूछा डीयर आज ऐसा क्या है ?
जो तुमने इतना प्यार दिखाया।।
थोड़ी मुस्कुराई थोड़ी शरमाई।
बोली प्रिय करवा चौथ है
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कविताअतुकांत कविता
माँ की पीड़ा
माँ चरखा चलाती थी
फुर्सत मिलते ही
तब मैं नहीं जानती थी
कि माँ सूत नहीं कात रही
वो समेट रही थी
लोगड़ में अपने दर्द...
माँ चक्की चलाती थी
शाम सवेरे पसीने से लथपथ
तब मैं नहीं जानती थी
माँ
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कविताअतुकांत कविता
जिंदगी के पन्ने
मेरी जिंदगी एक डायरी है
डायरी में पन्ने चार
जन्म लिया तो जीना है अब
डर काहे का यार
पहला पन्ना बचपन था
जो बेफिक्री में बीता
न कोई तब दुश्मन था
न थी कोई चिंता
दुजा पन्ना खोला तब
आई
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कहानीहास्य व्यंग्य
फेसबुक, व्हाट्सएप और टीवी सब जगह एक ही खबर थी । 21 को दुनिया खत्म हो जायेगी । बहुत डर भी लग रहा था और चिंता में नींद भी आसपास नजर नहीं आई ।
सोचते सोचते कब आंख लग गई पता ही न चला । आंख खुली तो अपने आपको
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कहानीप्रेरणादायक
मुझे सुसाइड नहीं करना था
बात आज से 15 साल पहले की है ।घर में झगड़ा इतना बढ़ गया न चाहते हुए भी मैंने फांसी लगाकर सबको डराने की कोशिश की ताकि आगे से सास ननदें डर जायें और आगे कभी मुझे परेशान न करें।
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कविताअतुकांत कविता
अक्सर विधुर पुरुष
बहुत ही झुंझलाता है
माँ का प्यार बच्चों पर
जब नहीं लुटा पाता है
माँ सा आंचल देना चाहता
मगर नहीं दे पाता है
फटेहाल ठिठुरती रातों में
माँ नहीं बन पाता है
अक्सर विधुर पुरुष
बहुत
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कविताअतुकांत कविता
विधुर पुरुष
अक्सर विधुर पुरुषों के
अधिकारों की गुर्राहट
बेटियों के आगे
बौनी हो जाती हैं
वे समझते हैं
औरतों की वल्यू
कभी खीजते हैं
झुंझलाते हैं
किंतु बेटी के
उलझे केश देखकर
झटक देते हैं झुंझलाहट
दूसरा
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कहानीसामाजिक
समझदार दादाजी
"अरे! दादाजी ये आप गाँव के बाहर बैठकर आप ये क्या कर रहे हैं? जो भी शादी के कार्ड आते हैं उसे यूँ खंभे पर क्यों टांग रहे हैं? " रोहित ने साइकिल रोक कर रामफल दादा जी से पूछा ।
"बेटा कोरोना
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