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"हिज्र"
कविता
हिज्र-ओ-फ़ुर्क़त में हबीब के कभी बसर करने का इरादा भी नहीं है
मुलाक़ात हबीब से ख़्वाब में कम न थी
हमें न बताकर आए
वस्ल तेरी मज़बूरी उसी से
हिज्र-ए-यार
ग़मे-हिज्र न खुशी मिलन की हमको
हिज्र-ओ-विसाल का सिलसिला रह गया
हिजरत
इश्क़-ए-हिज्र ही अब मिरी इबादत हो गई है
जमाले-ख़्याले-मुसबत कमाल रखते हैं
हिज्र-ओ-वस्ल का सिलसिला रहता है
उड़ी हुई है नींद हमारी वस्ल-ओ-मुलाक़ात में
दौराने-हिज्रे-ए-यार की बेपनाह याद आती है
विसाल-ए-हक़ीक़त से "बशर" फ़रेब से तुम हिज्र करो
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