कवितानज़्म
उखड़े- उखड़े हुए हैं रंजो-मलाल से
जिये जा रहे हैं बे-ख़बर बेख्याल से।
आलम-ए-बे-खुदी की इंतेहा हो गई
दरबदर इधर -उधर फिरे बदहाल से।
हयाते - मुस्त'आर की सांझ ढल गई,
अंजान है शब-ए-ग़म हमारे हाल से।
मसर्रतों के चंद लम्हात लेके आ गए
छीनकर अपनेही गुज़रे हुए काल से।
ज़ीस्त के आखीर में पीरी की पीर में
बचानहीं कोई यहाँ वक़्तकी चाल से।
मौत ही बचाए बशर बेसबब बेसहारा
मरणासन्न पडी जिंदगी के जंजाल से।
डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर"