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बेशुमार तल्ख़ियां - Dr. N. R. Kaswan (Sahitya Arpan)

कवितानज़्म

बेशुमार तल्ख़ियां

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चारसू कू ब कू बेशुमार तल्ख़ियाँ,
सरे - राह सरे - बाज़ार तल्ख़ियाँ!

रोज ढोता बोझ अपनी लाश का,
मरे आदमीका किरदार तल्ख़ियाँ!

बेज़ारी का बनी बाज़ार तल्ख़ियाँ,
है बेकाम का कारोबार तल्ख़ियाँ!

बोझिल जिंदगी का लगा बाज़ार,
आदमियत का व्यापार तल्ख़ियाँ!

फुरक़त -ओ -फ़िराक़ तल्ख़ियाँ,
आरज़ू-ए-विसाले-यार तल्ख़ियाँ!

हैं गिद्ध भी सैय्याद भी तल्ख़ियाँ,
इन्सानियत का शिकार तल्ख़ियाँ!

आदमी के अंदर मर गया आदमी,
जिंदा लाशों की मज़ार तल्ख़ियाँ!

सांसों के करार में कैद तल्ख़ियाँ,
आख़री दमतक बेक़रार तल्ख़ियाँ!

© डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर" 🍁

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