कवितानज़्म
खुदी से निकलकर यादों में खो गए
गांव से निकल कर शहर के हो गए
खेतों से छूटा रिश्ता घर के हो गए
घर से जो निकले सफ़र के हो गए
जख़्म भर गए मर्ज शिफ़ा हो गए
दर्दे-फुरक़त में हम पत्थर के हो गए
दिन बेचैन हुए रातें आवारा हो गईं
रोजोशब गए शामो-सहर के होगए
हयात -ए -मुस्त'आर हुई मुक़म्मल
घड़ी दोघड़ी पहर दो पहरके होगए
रास न आया सुकूने-क़ल्ब ऐ बशर
ज़हर खा- खाकर ज़हर के हो गए
© ✒️ डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर" 🍁