कविताअतुकांत कविता
सब कहते हैं मैं कांचनदासी हूं।
मैं ना कोई देवदासी हूं, ना मैंने कोई जोग लिया;
ओ मेरे आतम के हत्यारों ,में तुम्हारे अपमान की प्यासी हूं।
ना छोडूंगी मैं अब किसी को अगली बारी मेरी है;
कल मेरी उतरी थी कल तुम्हारी उतरेगी, यही न्याय की कहानी है।
मदहोशी थी मधुशाला की जब तूने मुझको रुलाया था;
तार तार किया ना सिर्फ वस्त्रो को, मेरे आतम को भी जलाया था।
स्वाभिमान छोड़ अपना मैं पहली बार गिड़गिड़ाई थी;
इज्जत बचाने अपनी तुम कमीनों से हाथ फैलाई थी।
आई थी कुदरत को भी दया मुझ पर, भर भर आंसू बहाई थी;
सुन चिखे मेरी वनराजी थर-थर कांपी ,बादलने भी बीज चमकाई थी।
तोड़ा था पर्दा मेरा दिल के हुए हजार टुकडे, उठा इंसानियत से यकीन मेरा रूह को भी दहलाया था;
लूंट के इज्जत मेरी मेरे सपनों के बगीचे को बेरान रन बनाया था।
आज भी याद है वो दिन जब जबरन वैश्य बनाई गई;
जब रहेम की गुहार लगाई तो महाभारत की याद दिलाई गई।
हुई थी बेइज्जत पंचाली धृतराष्ट्र सभा में, तो तेरी कौन सी नई कहानी है?; यही पुरानी बात सबको मन में जबानी है।
ना पूछूंगी किसी से सहाय का ,न्याय मदद ना मांगूंगी ;
जानती हूं मैं द्वापर था जो क्रिष्न(कृष्ण)आए ,मांगी जो आज मदद तो सिर्फ काल दिखलाए।
ना तो मैं यज्ञसैनी ,ना ही में सीता हूं;
कली के ओ हवसी पुजारीयो में तुम्हारे अंत की गीता हूं।
ना मैं कोई देवदासी ,ना मैंने कोई जोग लिया;
ओ मेरे आतम के हत्यारों ,मैं तुम्हारे अपमान की प्यासी हूं।
सब कहते हैं ,मैं कांचन दासी हूं।