कवितानज़्म
मौसम-ए-बहार फितरतें बदलती है,
अपनी जिंदगी भी अजनबी लगती है!
रोजो-शब का मुसलसल अनाजाना,
हयात भी किसी मशीन-सी चलती है!
धूपछांव का सा है सब खेल तमासा,
दिन ढलतेही इक परछाई निकलती है!
बिखरती है बिफरती है निखरती है,
ज़िन्दगी रोज़ नए -नए रंग बदलती है!
© dr. n. r. kaswan "bashar"
Surrey/02/02/2024