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कवितानज़्म
ख़िज़ाब लगाकर आया कभी हिजाब लगाकर आया चेहरेपे चेहरे बदल बदलकर बेहिसाब लगाकर आया हैरतमें पड़ा आईना कि रखकर गैरत ताकपर अपनी बेगैरत होकरके बन्दा बुर्के पर नक़ाब लगाकर आया ©✒️डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"