कवितानज़्मभजनगजलदोहाछंदचौपाईगीत
साहित्य अर्पण
#विधा मुक्त
#दिनांक ०१/०२/२०२४
#स्वरचित मौलिक रचना
" चूल्हे की रोटी "
क्या जमाना था वो जब चूल्हे में रोटी बनती थी ।
साथ खाते थे सभी मिल सबसे अच्छी बनती थी ।।
दादी, बब्बा, चाचा , चाची से सजा परिवार' था ,
रहते थे हम सब मगर बब्बा की उनमें चलती थी ।
साथ मिलकर जब सभी, खेतों मे करते' काम थे ।
हम सभी भाई बहन मे खूब अच्छी जमती थी ।।
क्या जमाना था ........
होगया क्या आज हमको, हम अकेले हैं' सभी ।
रस्ते होते हैं बड़ा धन बात मेरे मन की थी ।।
क्या जमाना था .......
भौजी के हांथों की रोटी, डोसे से भी बढ़ के थी ,
भाजी भी रहिला की उनकी छोले से भी बढ़ के थी ।
बंद मुट्ठी देखके दुश्वारियां भग जाती थीं ।
क्या ज़माना था वो जब चूल्हे में रोटी बनती थी ।।
आ गई जब गैस हम, सब ऐश हैं करने लगे ,
साथ रहने में सभी भाई , तो अब उरने लगे ।
हो गए होशियार सब हम धन कमाने लग गए ।
मां पिता को छोड़कर बच्चे पढ़ाने भग गए ।।
मर गए मां बाप हमको होश ना आया अभी।
जोड़ ली दौलत तो हमने चैन ना वाया कभी ।
अब सुधर जा लौट आ घर , मिट्टी मे मिल जायगा ।
लाल डाउन हो गया फिर, अब कहाँ तू जायेगा ।।
क्या जमाना था वो जब चूल्हे में रोटी बनती थी ।
साथ खाते थे सभी मिल सबसे अच्छी बनती थी ।।
शब्द रचना पं० रज्जन सरल
सतना म०प्र०