कवितानज़्म
चलता है येह जमाना अपने ही हिसाब से,
ना कि लिखी किसी तहरीर-ए-किताब से!
ख़्याली पुलाव मियां पकाओगे कबतलक,
भूख मिटी है कहाँ पकवानों के ख़्वाब से!
रूखी-सूखी खा कर ठंडा पानी पी लेते हैं,
है परहेज़ हम को तिरे इन तंदूरी कबाब से!
भलेही लाख छुपाकर रखिए नीम पोशीदा,
चेहरा नज़र आही जाता है ढके हिज़ाब से!
मिलता नहीं है हल किसी गलत सवाल का,
न मेरे जवाब से न किसी और के जवाब से!
अश्क-बारी आहो-फुगाँ हरवक़्त की दुहाई,
खुदा बचाए उल्फत में रुस्वाई के अज़ाब से!
© dr. n. r. kaswan "bashar"🍁