कवितानज़्म
इक ख़्वाब से बशर गुज़र गई रात अपनी
हकीक़त से मग़र बिछड़ गई रात अपनी
सुब्ह-ओ-शाम मिलाकिए रोजो-ओ -शब
ख़्वाबकी तामीर से मुकर गई रात अपनी
नींद क्या खुली कि सपने चूर चूर हो गए
और क़तरा क़तरा बिखर गई रात अपनी
शबे-रात सितारों बीच चांद जब आ गया
चांदनी में फिर से निखर गई रात अपनी
© dr. n. r. kaswan "bashar"