कवितानज़्म
नींद ना आई चश्म मलते रहे
ख़्वाब आंखों में मचलते रहे!
गुजरी ही नहीं यह रहगुज़र
राह -ए-सफ़र हम चलते रहे!
न मुकद्दर ने सिकंदर बनाया
वक़्तके साथ-साथ ढलते रहे!
उजाले की जंग अंधेरों से थी
दो दीये आँखों के जलते रहे!
सर पे बोझ पावों में जोश था
होकर मदहोश हम चलते रहे!
चांद सूरज के सफ़र में 'बशर'
रोज-ओ-शब येह बदलते रहे!
मल्कियत का उसे भ्रमही रहा
मकींअपने मकान बदलते रहे!
पैरोंपे अपने जोचले चलते रहे
बैठे रह गए वो हाथ मलते रहे!
© डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर"
सरी/१०/०१/२०२४
*शुभ विश्व हिन्दी दिवस*