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कवितानज़्म
फ़िराक़े-हबीब बहुत हुआ दूर ये तकरार हो, दिल येह चाहता है कि अब विसाले-यार हो! तुम कूचे से निकलो हम भी गली से निकलें, सू-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद चलें गर ऐतबार हो! © dr. n. r. kaswan "bashar"