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कवितानज़्म
*मनकी गहराई कौन समझे* पीरफ़कीर मुर्शिदमौलाई के मनकी गहराई कौन समझे रास न आई रौनक दुनियाई उसकी तन्हाई कौन समझे राब्तों का रोना घर-बार खोना अकेला होना हम समझें सब-कुछ खो कर जो दौलत उस ने कमाई कौन समझे © "बशर"