कविताभजनलयबद्ध कविताछंदचौपाईगीत
"अंत"
अनेकों पाप तो गिने नहीं,हिसाब यदि हमें मिले।
जितने सुखों की आस हो सब,एक क्षण में यदि छिने।।
सांसारिक कर्म नही जिससे,वेदना सारी कटे।
भजन तुझे मर्म सही जिससे,भँवरा ये गगन उड़े।।
अब भी सुमन मुग्ध बैठा है।
सही कर्म न जान पाएगा।।
एक उड़ान भजन की भरलो।
अक्षय दीपक जल जाएगा।।
इसी जीवन तुम यत्न करलो।
प्रसून अनंत खिल जाएगा।।
अथ ईश्वर का तुम यदि करलो।
अंत अधिश्वर मिल जाएगा।।
कितनों ने तो पा ली मंजिल।
कितने बाकी अभिलाषी हैं।
अनंत जन्म भोगकर जीवन।
अब भी यदि देह विलासी है।।
देखो अब अपने चहुं ओर।
जितने भी मार्ग पिपासी हैं।
तुड़वा बंधन बैठे सारे।
सारे पथ के सन्यासी हैं।।
अब तो मनुज तुम चेत जाओ।
पार भँवर का मिल जाएगा।
कितनों ने कर दिखलाया है।
यह तूं भी तो कर पाएगा।।
संतों का संग सुगम करलो।
प्रसून अनंत खिल जाएगा।
अथ ईश्वर का तुम यदि करलो।
अंत अधिश्वर मिल जाएगा।।
रचियता:-हेमंत।
प्रथम पद हरिगीतिका छंद।
अन्य पद चौपाई छंद।