कवितानज़्म
ख़ुलूस -ओ -क़रार के मौसम गुज़रे ज़माने हो गए,
अहबाब दिल के क़रीब होते थे वोह बेगाने हो गए!
हिज्र फुरक़त फ़िराक़ जुदाई फासले इसक़दर बढे,
वस्ल-ओ-मुलाक़ात के ख़्वाब सब फ़साने हो गए!
नये मकान में साज-ओ-सामान सब नया आ गया,
घर की तस्वीर के चेहरे तमाम अब पुराने हो गए!
शजर सूना होनेलगा परिंदों के बच्चे सयाने हो गए,
सबके अपने अलग-अलग 'बशर' ठिकाने हो गए!
हम को मिली ख़बर तब तक किस्से पुराने हो गए,
हमारे थे दीवाने किसी औरके कब दीवाने हो गए!
© डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"