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कवितानज़्म
अहल-ओ-अयाल से अपने बशर यूंतो रोज होती है मुलाक़ात मुख़्तलिफ़ मग़रहैं सबके जज़्बात अहसासात निजी ख़्यालात मुनासिब तो यही है कि करते रहें एहतराम हम सभी परस्पर वगरना आज-कल देर कहाँ लगती है बाहर आते हुए औक़ात © "बशर"