कवितानज़्म
अंदाज़-ए-हयात-ए-मुस्त'आर की सदाक़त जानले,
वक़्त बेवक़्त के दरमियाँ नाज ओ नज़ाकत जानले!
रोज-ओ-शब गुज़र जायेंगे मीलके पत्थरों के मानिंद,
मंज़िले-मक़्सूद आगाजे-सफ़र की मसाफ़त जानले!
दूरियाँ इस राह -ए-सफ़र की खुशी से कट जाएंगी,
जिंदगी और मौतके दरमियाँ बशर रफ़ाक़त जानले!
हरिभजन को आयके हम ओटनलगे कपास 'बशर'
मुक़र्रर पहले से जो हो गई है वोह क़यामत जानले!
रफ़ाक़त = वफ़ा, सदाक़त = सच्चाई,
मसाफ़त = अंतराल, क़यामत = अंत
@डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर"